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व्रण का दृष्टांत
आहार
अचित्त स्थान में 'वोसिरे' 'वोसिरे' कहता हुआ विसजित ११. आहार करने के हेतु कर देता है।
वेयणवेयावच्चे इरियट्टाए य संजमट्टाए। तत्थ से भुंजमाणस्स, अट्ठियं कंटओ सिया ।
तह पाणवत्तियाए छठें पूण धम्मचिंताए । तण-कट्र-सक्करं वा वि, अन्नं वा वि तहाविहं।।
(उ २६।३२) तं उक्खिवित्तु न निक्खिवे, आसएण न छड्डए।
आहार करने के छह कारणहत्थेण तं गहेऊणं, एगंतमवक्कमे ।।
१. वेदना. भूख की पीडा मिटाने के लिए। एगतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया ।
२. वैयावृत्त्य करने के लिए। जयं परिदृवेज्जा, परिठ्ठप्प पडिक्कमे ।। ३. ईर्यासमिति का पालन करने के लिए।
(द ५१११८४-८६) ४. संयम की रक्षा के लिए। भोजन करते हुए मुनि के आहार में गुठली, कांटा, ५. प्राण-धारण के लिए। तिनका, काठ का टुकड़ा, कंकड़ या इसी प्रकार की कोई ६. धर्म-चिन्ता के लिए। दूसरी वस्तु निकले तो उसे उठाकर न फेंके, मुंह से न ।
नत्थि छुहाए सरिसा वियणा भुजेज्ज तप्पसमणट्रा । थूके, किन्तु हाथ में लेकर एकान्त में चला जाए।
छाओ वेयावच्चं ण तरइ काउं अओ भुंजे ।। एकान्त में जा अचित्त भूमि को देख, यतनापूर्वक उसे
इरिअं नऽवि सोहेई पेहाईअं च संजमं काउं । परिष्ठापित करे । तत्पश्चात् स्थान पर आकर प्रतिक्रमण
थामो वा परिहायइ गुणऽणप्पेहास् अ असत्तो ।। करे।
(पिनि ६६३, ६६४) तं च अच्चंबिलं पूई नालं तण्हं विणित्तए ।
भूख के समान कोई वेदना नहीं है। इसलिए भूख देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिस ।।
को शांत करने के लिए भोजन करना चाहिए। भूखा तं च होज्ज अका मेणं विमणेण पडिच्छियं ।
साधु वैयावृत्त्य नहीं कर सकता, इसलिए वैयावृत्त्य करने तं अप्पणा न पिबे नो वि अन्नस्स दावए ।।
के लिए भोजन करना चाहिए। एगंतमवक्कमित्ता अचित्तं पडिलेहिया ।
___अशक्तता के कारण बुभुक्षित साधु न ईर्यापथ का जयं परिवेज्जा परिटुप्प पडिक्कमे ।।
शोधन कर सकता है और न प्रेक्षा, उपेक्षा आदि संयम(द ५११७९-८१)
स्थानों का अनुपालन कर सकता है। भूख के कारण यदि जल बहुत खट्टा, दुर्गन्धयुक्त और प्यास बुझाने
प्राणशक्ति क्षीण हो जाती है, इसलिए भोजन करना में असमर्थ हो तो देती हए स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे--..
चाहिए। भूखा साधु ग्रंथपरावर्तन तथा अनुप्रेक्षा नहीं इस प्रकार का जल मैं नहीं ले सकता ।
कर सकता, इसलिए भोजन करना चाहिए। यदि अनिच्छा या असावधानी से पानी लिया गया
जह अब्भंगणलेवा सगडक्खवणाण जुत्तिओ होति । हो तो उसे न स्वयं पीए और न दूसरे साधुओं को दे परन्तु
इय संजमभरवहणट्ठयाए साहूण आहारो।। एकान्त में जा अचित्त भूमि को देख, यतना-पूर्वक उसे
(ओनि ५४६) परिष्ठापित करे । परिष्ठापित करने के पश्चात् स्थान में
जैसे भारवहन के लिए गाड़ी के अक्ष (धुरा) को न आकर प्रतिक्रमण करे ।
अधिक, न कम, किन्तु युक्तिपूर्वक तैल आदि से चुपड़ा १०. सात्विक आहार का फल
जाता है, व्रण पर उचित मात्रा में लेप किया जाता है, हियाहारा मियाहार, अप्पाहारा य जे नरा।
वैसे ही केवल संयमभार को वहन करने के लिए मुनि न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा।
उचित मात्रा में आहार करे ।
(ओनि ५७८) व्रण का दृष्टान्त हित-मित-सात्विक आहार करने वाले व्यक्ति स्वयं जहा 'व्रणो मा फुट्टिहिति' त्ति मक्खणादिदाणं एवं अपने चिकित्सक होते हैं। उनकी चिकित्सा के लिए अन्य जीवस्स सरीरद्वितिनिमित्तमाहारो, ण रूवादिहेतुं । वैद्य की आवश्यकता नहीं होती।
(दअचू पृ८)
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