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आहार
कर सब खा ले, शेष न छोड़े, भले फिर वह दुर्गन्धयुक्त
हो या सुगन्धयुक्त ।
७. आहार - परिमाण
बत्तीस किरकवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला ॥ ( पिनि ६४२ ) पुरुष का पूरा आहार बत्तीस कवलप्रमाण तथा स्त्री का अट्ठाईस कवलप्रमाण माना गया है ।
कवलाण य परिमाणं, कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्तं तु । जो वा अविगियवयणो, वयणंमि छुहिज्ज वीसत्थो || ( उशावृप ६०४ ) एक कवल का परिमाण मुर्गी के अण्डे जितना बतलाया गया है अथवा एक बार में जितना आहार मुख में डालने से मुख विकृत न हो, वह प्रमाणोपेत कवल है ।
अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भागे । वाऊपवियारणट्ठा छन्भायं ऊणयं कुज्जा | (पिनि ६५० ) कल्पना से उदर के छह भाग कर तीन भाग आहार से तथा दो भाग पानी से पूरित करे । छठा भाग वायुसंचरण के लिए खाली छोड़े ।
सीए वस्स एगो भत्ते चत्तारि अहव दो पाणे । उसिणे दवस दोन्नि उ तिन्नि व एसा उ भत्तस्स ॥ (पिनि ६५२ ) अत्यन्त शीतकाल में पानी के लिए एक भाग तथा आहार के लिए चार भाग कल्पित हैं। मध्यम शीतकाल और उष्णकाल में दो भाग पानी और तीन भाग आहार के लिए तथा अत्यन्त उष्णकाल में तीन भाग पानी और दो भाग आहार के लिए कल्पित हैं । छठा भाग सर्वत्र वायु संचरण के लिए है ।
८. अपेय- वर्जन
सुरं वा मेरगं वा वि, अन्नं वा मज्जगं रसं । सक्खं न पिबेभिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो ॥ (द ५।२।३६) अपने संयम का संरक्षण करता हुआ भिक्षु सुरा, मेरक या अन्य किसी प्रकार का मादक रस आत्मसाक्षी से न पीए ।
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परिष्ठापनीय आहार और परिष्ठापन विधि वड्ढई सोंडिया तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो । अयसो य अनिव्वाणं, सययं च असाहुया || (द ५।२।३८ ) मादक रस पीने वाले भिक्षु के उन्मत्तता, मायामृषा, अयश, अतृप्ति और सतत असाधुता - ये दोष बढ़ते हैं ।
६. परिष्ठापनीय आहार और परिष्ठापन विधि
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सा पुण जायमजाया जाया मूलोत्तरेहि उ असुद्धा | लोभाति रेगगहिया अभियोगकया विसकया वा ॥ आयरिए य गिलाणे पाहुणए दुल्लभे सहसदाणे । एवं होइ
अजाया ॥
(ओनि ५९४,६०७ ) परिष्ठापनीय आहार के दो प्रकार हैं
१. जाता (अशुद्ध ) भिक्षा प्राणातिपात आदि मूल दोषों से, क्रीत आदि उत्तर दोषों से दूषित तथा लोभ से दूषित और वशीकरण चूर्ण मिश्रित, मंत्र से अभिमंत्रित तथा विषमिश्रित आहार परिष्ठापनीय है।
२. अजाता (शुद्ध) भिक्षा - आचार्य, ग्लान तथा अतिथि - इनके लिए लाया गया आहार यदि अतिरिक्त हो, कोई खाने वाला न हो, तो वह परिष्ठापनीय होता है । द्रव्य की दुर्लभता से अत्यधिक लाया गया हो या दान की प्रचुरता से पदार्थ अधिक आ गया हो तो वह परिष्ठापनीय होता है ।
एतणावाए अच्चित्ते थंडिले गुरुवइट्ठे । आलोए एगपुंजं तिद्वाणं सावणं कुज्जा | एवं विज्जाजोए विससंजुत्तस्स वावि गहियस्स । पाणच्चएवि नियमुज्झणा उ वोच्छं परिट्ठवणं ॥ एगंतमणावाए अच्चित्ते थंडिले रुट्ठे । छारेण अक्कमित्ता तिट्ठाणं सावणं कुज्जा ॥ (ओनि ५२५,६०३,६०४)
मुनि गुरु की अनुज्ञा प्राप्त कर एकांत अचित्त स्थान में जाता है। वहां समभूभाग में उस भिक्षा का परिष्ठापन कर 'वोसिरे' ( व्युत्सृष्ट ) शब्द का तीन बार उच्चारण करता है । इसी प्रकार मुनि विद्या से अभिमंत्रित, योगचूर्णकृत अथवा विषमिश्रित भिक्षा आ जाने पर उसमें राख मिलाकर उसके तीन पुंज कर एकान्त
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