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आवश्यक
जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र इन तीनों का प्रसाधक है और प्रतिनियत काल में अनुष्ठेय योगपरम्परा का आसेवन है, वह आवश्यक है । मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना से प्रारंभ कर संपूर्ण दिन-रात में करणीय चक्रवाल सामाचारी का आचरण आदि समस्त क्रियाएं आवश्यक कहलाती हैं ।
भव्वस्स मोक्खमग्गा हिलासिणो ठियगुरुवएसस्स । आईए जोग्गमिणं बाल गिलाणस्स वाऽऽहारं ॥ (विभाकोवृ पृ ५ )
जैसे बाल और ग्लान के लिए आहार आवश्यक है, वैसे ही गुरु आज्ञा के अनुपालक और मोक्षाभिलाषी भव्य के लिए 'आवश्यक' का अनुष्ठान आवश्यक है । एकार्थक
आवस्तय अवस्सकर णिज्ज ध्रुवनिग्गहो विसोही य । अभय छक्क वग्गो, नाओ आराहणा मग्गो ॥ ( अनु २८1१ ) आवस्सगं -- अवस्सकरणिज्जं जं तमावासं अहवा गुणाणमावासत्तणतो । कम्ममदुविहं कसाया इंदिया वा धुवा इमेण जम्हा तेसि णिग्गहो कज्जइ तम्हा धुवणिग्गहो, अवस्सं वा णिग्गहो । कम्ममलिणो आता विसोहिज्जतीति विसोही । सामायिकादि गण्यमानानि षडध्ययनानि वग्गो | णायो समूहः अभिप्रेतार्थसिद्धिः । ' युक्तः आराधना मोक्खस्स सव्वपसत्यभावाण वा । लद्वीण पंथो मार्ग इत्यर्थः । ( अनुचू पृ १४ )
आवश्यक के आठ पर्यायवाची नाम हैं
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1- यह अवश्यकरणीय है अथवा यह गुणों का आवासस्थल है । ३. ध्रुव - निग्रह - आवश्यक से कर्म, कषाय और इन्द्रियों का निश्चित रूप से निग्रह होता है । ४. विशोधि – इससे कर्म से मलिन आत्मा की विशोधि होती है । ५. अध्ययनषट्कवर्ग -- यह
१. आवश्यक २. अवश्यकरणीय
सामायिक आदि छह अध्ययनों का समूह है । ६. न्याय -- इससे अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि होती है । ७. आराधना- इससे मोक्ष अथवा सर्व प्रशस्त भावों की आराधना होती है । ८. मार्ग - यह आत्मालोचन और आत्मनिरीक्षण की ओर ले जाने वाला तथा उपलब्धियों का मार्ग है ।
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प्रकार
आवस्सय छव्विहं पण्णत्तं तं जहा - सामाइयं, चवीसत्थओ, वंदणयं, पक्किमणं, काउस्सग्गो, पच्चक्खाणं ।
( नन्दी ७५ )
आवश्यक छह प्रकार का है
१. सामायिक
२. चतुर्विंशतिस्तव
३. वन्दना
अर्थाधिकार
आवश्यक के प्रकार
४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग
६. प्रत्याख्यान ।
सावज्जजोगविरई उक्कित्तण गुणवओ य पडिवत्ती । खलियस्स निंदणा वणतिगिच्छ गुणधारणा चैव ।। ( अनु ७४ ) पढमे सामादियज्झयणे पाणादिवायादिसव्वसावज्जजोगविरती कायव्वा | बितिए दरिसणविसोहिणिमित्तं
बोधिलाभत्थं च कम्मखवणत्थं च तित्थगरणामुक्कितणा कता । ततिए चरणादिगुणसमूहवतो वंदणणमंसणादिएहिं पडिवत्ती कातव्वा । चउत्थे मूलुत्तरावराहक्खलाए क्खलितो पच्चागतसंवेगे विसुज्झमाणभावो पमात करणं संभरंतो अप्पणो णिदणगरहणं करेति । पंचमे पुण साधू वणवण दसविहपच्छित्तेण चरणादियाइयारवणस्स तिगिच्छं करेति । छट्ठे जहा मूलुत्तरगुणपडिवत्ती निरतियारधारणं च जधा तेसि भवति तथा अत्थपरूवणा । ( अनुचू पृ १८ ) आवश्यक के छह अर्थाधिकार हैं - सावद्ययोगविरति, उत्कीर्तन, गुणवान की प्रतिपत्ति, स्खलित की निन्दा, व्रणचिकित्सा और गुणधारणा ।
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१. सामायिक अध्ययन का प्रतिपाद्य है - प्राणातिपात आदि सावद्य सपापकारी प्रवृत्तियों से विरति । २. चतुर्विंशतिस्तव दर्शनविशोधि, पुनर्बोधिलाभ और कर्मक्षय के लिए अर्हतों की उत्कीर्तना । ३. वन्दना चारित्र सम्पन्न, गुणसम्पन्न व्यक्तियों का वन्दना - नमस्कार द्वारा सम्मान - बहुमान करना । ४. प्रतिक्रमण मूलगुणों-उत्तरगुणों में स्खलना होने पर संवेगसम्पन्न हो, विशुद्धभावों से प्रमाद की स्मृति कर अपनी निन्दा गर्हा करना ।
५. कायोत्सर्ग चारित्र आदि के अतिचाररूप व्रण की आलोचना आदि दस प्रकार के प्रायश्चित्त द्वारा चिकित्सा करना ।
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