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आवश्यक के निर्वचन
निन्दनम् - आत्मनैवात्मदोषपरिभावनम् ।
( उशावृ प ५७९ ) स्वयं ही अपने दोषों का चिन्तन करना निन्दा है । .... निंदणयाए णं पच्छाणुतावं जणयइ । पच्छाणुतावेणं विरज्जमाणे करणगुणसेढि पडिवज्जइ । करणगुणसेढि पडवन्ने य णं अणगारे मोहणिज्जं कम्मं उग्धाएइ ।
(उ२९।७)
निदा से जीव पश्चात्ताप को प्राप्त होता है । उसके द्वारा विरक्त होता हुआ मोह को क्षीण करने में समर्थ परिणामधारा को प्राप्त हुआ अनगार मोहनीयकर्म कां क्षीण कर देता है ।
गर्हा और उसके परिणाम
"गुरुपच्चक्खदुगंछा गम्मइ गरिहा
गर्हणेन परसमक्षात्मनो
( उशावृ प ५८० ) गुरुसाक्षी से अथवा दूसरों के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना गर्दा है ।
...गरहणयाए णं अपुरक्कारं जणयइ । अपुरस्कारगए णं वे अपत्ये हतो जोगेहितो नियत्तेइ । पत्थजोगपडिबन्ने य णं अणगारे अणं तघाइपज्जवे खवेइ । ( उ२९/८)
गर्दा से जीव अनादर को प्राप्त होता है । अनादर प्राप्त हुआ वह अप्रशस्त प्रवृत्तियों से निवृत्त होता है और प्रशस्त प्रवृत्तियों को अंगीकार करता है । वैसा अनगार आत्मा के अनन्त विकास का घात करने वाले ज्ञानावरण आदि कर्मों की परिणतियों को क्षीण करता है ।
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( विभा ३५७५ ) दोषोद्भावनेन ।
१. आवश्यक के निर्वाचन
० परिभाषा
एकार्थक
प्रकार -- ( १ ) सामायिक
आवश्यक - प्रात: और सायं - दोनों संध्याओं में अवश्यकरणीय छह अध्ययन वाला विधिसूत्र | अंगबाह्य आगम का एक भेद ।
०
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(२) चतुविशतिस्तव (३) वंदना
• अर्थाधिकार
२. द्रव्य आवश्यक
३. भाव आवश्यक
४. आवश्यक के निक्षेप
* आवश्यक : अंगबाह्य का भेद
(४) प्रतिक्रमण (५) कायोत्सर्ग (६) प्रत्याख्यान
आवासक
परिभाषा
आवश्यक
१. आवश्यक के निर्वाचन
समणेण सावएण य अवस्सकायव्वं हवइ जम्हा । अंतो अहोनिसस्स उ, तम्हा आवस्सयं नाम ॥ ( अनु २८ गाथा २ ) जदवस्सं कायव्वं तेणावस्सयमिदं गुणाणं वा । आवस्यमाहारो आ मज्जायाभिविहिवाई ॥ आवस्सं वा जीवं करेइ जं नाण-दंसण-गुणाणं । संनिज्भ- भावण - च्छायणेहिं वावासयं गुणओ ॥
( विभा ८७४, ८७५) संस्कृत रूप प्राप्त हैं ।
(द्र संबद्ध नाम )
'आवस्य' शब्द के चार उनका निर्वचन इस प्रकार है। आवश्यक – जो श्रमणों और श्रावकों के लिए दोनों संध्याओं में अवश्य करणीय है । आपाश्रय - जो गुणों का आधार है ।
आवश्य - जो व्यक्ति को ज्ञान, दर्शन आदि गुणों का वशवर्ती बनाता है ।
(द्र. अंगबाह्य)
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"
- जो गुणों का सान्निध्य प्रदान करता है, आत्मा को गुणों से वासित / आच्छादित करता है ।
अवश्यकर्तव्य सामायिकादिक्रियानुष्ठानं तत्प्रतिपादकं श्रुतमपि आवश्यकम् । ( नदीम प २०४ ) अवश्य करणीय सामायिक आदि क्रियाअनुष्ठान को आवश्यक कहते । इन अनुष्ठानों का प्रतिपादक शास्त्र भी आवश्यक कहलाता है ।
आवश्यकं ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयप्रसाधकप्रतिनियतकालानुष्ठेययोगपरम्पराप्रतिसेवनमित्यर्थः । ---------मुख
स्त्रिका प्रत्युपेक्षणादारभ्य सकलाहोरात्रान्तर्व्याप्यसपत्नकर्त्तव्यतोक्तचक्रवालसमाचार्याच रणमावश्यकमभिधीयते ।
(विभाकोवृ पृ २ )
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