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आवश्यक के निक्षेप
६. प्रत्याख्यान मूल और उत्तरगुणों की प्रतिपत्ति तथा उनको निरतिचार रूप में जैसे धारण किया जाए, उस रूप में अर्थ की प्ररूपणा करना ।
२. द्रव्य आवश्यक
जह सव्वदोसरहियं पि निगदओ सुत्तमणुवउत्तस्स । दव्वसुयं दव्वावासयं च तह सव्र्व्वाकरियाओ || (विभा ८५९) जैसे उपयोगशून्य मुनि द्वारा उच्चारित सर्वदोषरहित सूत्र भी द्रव्यश्रुत, द्रव्यावश्यक होता है, वैसे ही उपयोगशून्य सारी क्रिया द्रव्यक्रिया होती है। ३. भाव आवश्यक
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उवउत्तस्स उ खलियाइयं पि सुद्धस्स भावओ सुतं । साहइ तह किरियाओ सख्याओं निज्जरफलाओ ।। (विभ) ८६०) उपयोगयुक्त मुनि का स्खलित आदि दोषयुक्त सूत्र भी, भावना की शुद्धि के कारण भावसूत्र होता है । इसी प्रकार उसकी सारी क्रियाएं कर्मनिर्जरा के फलवाली होती हैं ।
४. आवश्यक के निक्षेप
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आवस्सयं चउव्विहं पण्णत्तं तं जहा - नामावस्सयं ठवणावस्तवं दव्वावस्तयं भावावस्तयं । ( अनु ८) आवश्यक के चार प्रकार हैं-नाम आवश्यक, स्थापना आवश्यक, द्रव्य आवश्यक, भाव आवश्यक । नाम आवश्यक
जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा आवस्सए नामं कण्जइ से तं नामावस्यं ।
( अनु ९)
जिस जीव या अजीव का, जीवों या अजीवों का, जीव-अजीव दोनों का, जीवों और अजीवों दोनों का 'आवश्यक' यह नाम किया जाता है, वह नाम आवश्यक है ।
स्थापना आवश्यक
जणं कटुकम्मे वा चित्तकम्मे वा पोत्थकम्मे वा लेप्यकम्मे वा गंधिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अणेगा वा सब्भावठवणाए वा असम्भावठवणाए वा आवस्सए ति ठवणा ठविज्जइ । से तं व्वभावस्य । ( अनु १०)
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आवश्यक
काष्ठाकृति, चित्राकृति पुस्तक में अंकित चित्र, लेप्पाकृति में अथवा गूंथकर वेष्टित कर भरकर या जोड़कर बनाई हुई पुतली में अथवा अक्ष या कौड़ी में एक या अनेक सद्भाव स्थापना ( वास्तविक आकृति) अथवा असद्भाव स्थापना (काल्पनिक आरोपण) के द्वारा आवश्यक (आवश्यक क्रिया करते हुए व्यक्ति) का जो रूपांकन या कल्पना की जाती है, वह स्थापना आवश्यक है ।
द्रव्यावश्यक के निक्षेप
aarti दुविहं पण्णत्तं तं जहा - आगमओ य नोआगमओ य । ( अनु १२ ) द्रव्य आवश्यक के दो प्रकार हैं-आगमतः (ज्ञान की अपेक्षा से) और नोआगमतः (ज्ञानाभाव और क्रिया की अपेक्षा से) । आगमतः द्रव्यावश्यक
आगमओ दव्वावस्तयं जस्स णं आवस्सए त्ति पदं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं नामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणच्चखरं अव्वाइदक्बर अक्बलियं अमि लियं यामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंठोद्रविष्य मुक्कं गुरुवायणोवयं से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टाए धम्काए, नो अणुप्पेहाए । ( अनु १३ )
जिसने 'आवश्यक' यह पद सीख लिया, स्थिर कर लिया, चित (स्मृति योग्य) कर लिया, मित (श्लोक आदि की संख्या से निर्धारित कर लिया, परिचित कर लिया, नाम-सम (अपने नाम के समान) कर लिया, घोषसमसही उच्चारणयुक्त कर लिया, जिसे उसने हीन, अधिक और विपर्यस्त अक्षर रहित, अस्खलित, अन्य वर्णों से अमिश्रित अन्य ग्रन्थ के वाक्यों से अमिश्रित प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण घोषयुक्त, कण्ठ और होठ से निकला हुआ तथा गुरु की वाचना से प्राप्त किया है, वह उस आवश्यक पद के अध्ययन, प्रश्न, परावर्तन और धर्मकथा में प्रवृत्त होता है, तद आगमतः द्रव्य आवश्यक है वह अनुप्रेक्षा (अर्थ के अनुचिन्तन) में प्रवृत्त नहीं होता क्योंकि द्रव्य निक्षेप उपयोग रहित (चित्त की प्रवृत्ति से शून्य) होता है। नोआगमतः द्रव्यावश्यक
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नोआगमओ दवावस्तयं तिविहं पण्णत्तं तं जहा • जाण सरीरदव्वावस्सयं भवियसरीरदव्वावस्तयं जाणंगसरीर भविपसरीर वतिरितं दव्वावस्समं ( अनु १५ ) - । -
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