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आराधना
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आलोचना की परिभाषा
जो सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक चारित्र की जो मुनि लज्जा, गौरव और बहश्रतता के अभिमान अविकल आराधना करते हैं, वे आराधक हैं।
के कारण गुरु के समक्ष अपने दोषों की आलोचना नहीं आराहणाइ जुत्तो सम्म काऊण सुविहिओ कालं ।। करते, वे आराधक नहीं होते। उक्कोसं तिन्नि भवे गंतूण लभेज्ज निव्वाणं ॥ आर्तध्यान-प्रिय के संयोग और अप्रिय के वियोग जघन्यत एकेनैव भवेन सिद्ध यतीति तद्वज्रर्षभना
के लिए एकाग्र होना। (द्र. ध्यान) राचसंहननमङ्गीकृत्योक्तं, छेवट्टिकासंहननो हि यद्यतिशयेनाराधनं करोति ततस्तृतीये भवे मोक्षं प्राप्नोति । उत्कृष्ट
आलोचना -गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन । शब्दश्चात्रातिशयार्थे द्रष्टव्यो न तु भवमङ्गीकृत्य ।
१. आलोचना भवाङ्गीकरणे पुनरष्टभिरेवोत्कृष्टतो भवे छेवट्टिकासंहननो सिध्यतीति । (ओनि ८०८; व प २२७)
० परिभाषा जो उत्कृष्ट आराधना कर समाधिमरण करता है ० पर्याय वह तीसरे भव में अवश्य मुक्त हो जाता है। वज्रऋषभ
० प्रकार नाराच संहनन वाला उत्तम आराधक एक भव
विधि (उसी जन्म) में मुक्त हो जाता है। सेवार्त्त संहनन वाला उत्तम आराधक जघन्य तीन तथा उत्कृष्ट आठ भवों में
२. आलोचना कब? मुक्त हो जाता है।
३. आलोचना किससे? परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए,
४. आलोचना परसाक्षी से चउक्कसायावगए अणिस्सिए । ५. आलोचना-काल में वर्जनीय दोष स निधुणे धुन्नमलं पुरेकडं, आराहए लोगमिणं तहा परं ॥
६. आलोचना-निन्दा-गर्दा के परिणाम (द ७।५७)
| * आलोचना : प्रायश्चित्त का प्रकार (द्र. प्रायश्चित्त)। ___गुण-दोष को परख कर बोलने वाला, सुसमाहितइन्द्रियवाला, चार कषायों से रहित, अनिश्रित (तटस्थ)
__ * आहार से पूर्व आलोचना (द. आहार) | भिक्ष पूर्वकृत पाप-मल को नष्ट कर वर्तमान तथा भावी लोक की आराधना करता है।
१. आलोचना की परिभाषा एवं तु गुणप्पेही, अगुणाणं च विवज्जओ।
आलोयणमरिहंति आ मज्जा लोयणा गुरुसगासे । तारिसो मरणते वि, आराहेइ संवरं ।। जं पाव विगडिएणं सूज्झइ पच्छित्तपढमेयं । आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो।.......
(उशाव प ६०८) (द ५।२।४४,४५) आलोचना का अर्थ है-गुरु के समक्ष अप गुण की प्रेक्षा (आसेवना) करने वाला और अगुणों को प्रकट करना । जिस पाप की शुद्धि आलोचना से ही को वर्जने वाला, शुद्ध भोजी मुनि मरणान्तकाल में भी हो जाती है, उसे आलोचनाह प्रायश्चित्त कहा गया है। संवर की आराधना करता है। वह आचार्य और श्रमणों यह प्रायश्चित्त का पहला भेद है। की आराधना करता है।
परोप्परस्स वायण-परियट्रण-लोयकरण-वत्थदाणादि....."तिहिं विराहणाहिं—नाणविराहणाए, अणालोइए गूरूणं अविणयोति आलोयणारिहं । दंसणविराहणाए, चरित्तविराहणाए। (आव ४८)
(दअचू पृ १४) विराधना के तीन प्रकार हैं-ज्ञान विराधना, दर्शन
परस्पर अध्ययन-अध्यापन, परिवर्तना, केशलुंचन, विराधना, चारित्र विराधना।
वस्त्रों का आदान-प्रदान आदि कार्य गुरु-आज्ञा के लज्जाइ गारवेण य बहुस्सुयमएण वाऽवि दुच्चरि। बिना करने से गुरु का अविनय होता है। इस पाप की जे न कहंति गुरूणं न हु ते आराहगा हुंति ॥ शुद्धि मात्र आलोचना से हो जाती है।
(उनि २१८)
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