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आयतन
णाणस्स दंसणस्स य चरणस्स य जत्थ होइ उवघातो । वज्जेज्जऽवज्जभीरू अणाययणवज्जओ खिप्पं ॥ (ओनि ७७८ )
जहां ज्ञान - दर्शन - चारित्र की हानि हो, उस अनायतन का पापभीरु मुनि वर्जन करे ।
न चरेज्ज वेससामंते, बंभरवसाणुए । भयारिस दंतस्स, होज्जा तत्थ विसोत्तिया ॥ अणायणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं । होज्ज वयाणं पीला, सामण्णम्मिय संसओ ॥ तम्हा एवं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं । वज्जए वेससामंतं, मुणी एगंतमस्सिए |
(द ५1१1९-११)
ब्रह्मचर्य का वशवर्ती मुनि वेश्याबाड़े के समीप न जाये। वहां दमितेन्द्रिय ब्रह्मचारी के भी विस्रोतसिका हो सकती है - साधना का स्रोत मुड़ सकता है ।
अस्थान में बार-बार जाने वाले के ( वेश्याओं का ) संसर्ग होने के कारण व्रतों का विनाश और श्रामण्य में संदेह हो सकता है ।
इसलिए इसे दुर्गति बढ़ाने वाला दोष जानकर एकान्त (मोक्ष - मार्ग ) का अनुगमन करने वाला मुनि वेश्या - बाड़े के समीप न जाये ।
३. आयतन - अनायतन सेवन की फलश्रुति
अंबरस य निवस्य दुहंपि समागयाई संसग्गीए विणट्टो अंबो नित्तणं
मूलाई । पत्तो ॥ (ओनि ७७० ) आम्रवृक्ष और नीमवृक्ष की जड़ें जब आपस में मिल जाती हैं, तब उस संसर्ग से आम्रवृक्ष नष्ट हो जाता है, नीम की कटुता को प्राप्त हो जाता है ।
वह
पावइ
जह नाम महुरसलिलं सागरसलिलं कमेण संपत्तं । पावइ लोणियभावं मेलणदोसाणुभावेणं ।। एवं खु सीलतो असीलमंतेहि मेलिओ संतो । गुणपरिहाणी मेलणदोसाणुभावेणं ।। (ओनि ७७६, ७७७ ) जैसे मधुरजल सागर के जल में मिलकर खारा हो जाता है, अपनी मधुरता को खो देता है, वैसे ही शीलसंपन्न व्यक्ति शीलहीन व्यक्ति के साथ रहकर अपने अर्जित गुणों को खो देता है। यह कुसंगति का अनुभव है ।
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सुंदरजण संसग्गी सीलदरिद्दपि कुणइ सीलड्ढं । जह मेरुगिरीजायं तपि कणगत्तणमुवेइ ॥ (ओनि ७८४) अच्छे व्यक्ति का संसर्ग शीलहीन को भी शीलसंपन्न बना देता है । जैसे मेरुपर्वत पर उत्पन्न तृण भी स्वर्ण बन जाता है ।
आराधना
सुचिरंपि अच्छमाणो नलथंबो उच्छुवाडमज्झमि । कीस न जायइ महुरो जइ संसग्गी पमाणं ते ।। सुचिरंपि अच्छमाणो वेरुलिओ कायमणियओमी से । न उवेइ कायभाव पान्नगुणेण नियएण || भाग भावुगाणि य लोए दुविहाई हुंति दव्वाई | वेरुलिओ तत्थ मणी अभागो अन्नदव्वेणं ॥ ऊसयभागेणं बिबाई परिणमंति तब्भावं । लवणा गराइसु जहा वज्जेह कुसीलसंसग्गी ॥ (ओनि ७७१-७७४) शिष्य ने पूछा- भंते! यदि संसर्ग ही प्रमाण है तो वाटिका में दीर्घकाल तक रहने पर भी नलस्तम्ब मधुर क्यों नहीं होता ? गुरु ने कहा दो प्रकार के पदार्थ होते हैं - भावुक और अभावुक । वैडूर्य मणि भावुक (अन्य से प्रभावित ) द्रव्य है । वह अपने विशिष्ट गुण के कारण काचमणियों के साथ रहने पर भी काच नहीं बनता । काष्ठ, चर्म आदि भावुक द्रव्य हैं । काष्ठ आदि का सौवां हिस्सा भी यदि नमक की खान का स्पर्श कर लेता है तो वह भी नमक बन जाता है । अतः कुशील का संसर्ग वर्जनीय है ।
आयुष्यकम - जीव की भवस्थिति में हेतुभूत कर्म । ( द्र. कर्म ) आराधना स्वीकृत नियमों की सम्यक् अनुपालना करना । ज्ञान के अनुकूल क्रिया करना ।
आराधक : विराधक
पंचिदिएहि गुत्तो तवनियमसंजमंमि अ
मणमाईतिविहकरण माउत्तो । जुत्तो आराधओ होइ ॥ (ओनि २८० ) जो पांच इन्द्रियों से गुप्त, तीन गुप्तियों में जागरूक, तप, नियम, संयम से युक्त होता है, वह आराधक होता है ।
आराधयन्ति अविकलतया निष्पादयन्ति सम्यग् - दर्शनादीनि इत्याराधका भवन्ति । ( उशावृप २३३)
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