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आयतन
सेसा पुत्रपवण्णा नियमा भयणा पुर्वपवण्णा
पडिवज्जमाणया भइया । अकसायाsarat होंति ॥ ( विभा ४१२, ४१३) विकलेन्द्रिय ( द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय), अविशुद्धलेश्य (कृष्ण-नील कापोत), अनाहारक, असंज्ञी, अनाकारोपयोगी - ये सब यदि मतिज्ञानी हों तो पूर्वप्रतिपन्न ही होंगे । मनःपर्यवज्ञानी पूर्वप्रतिपन्न ही होते हैं ।
मनुष्य – ये सब
नारक, देव, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और जाति की अपेक्षा (समुच्चय दृष्टि से ) मतिज्ञान से पूर्व - प्रतिपन्न होते हैं । इनमें प्रतिपद्यमानता वैकल्पिक है । अकषाय और अवेदक में पूर्व प्रतिपन्नता वैकल्पिक है छद्मस्थ की अपेक्षा पूर्व प्रतिपन्न होते हैं, केवली की अपेक्षा पूर्वप्रतिपन्न नहीं होते तथा ये दोनों प्रतिपद्यमान नहीं होते ।
आयतन - विशुद्धि के योग्य स्थान ।
१. आयतन अनायतन
० परिभाषा
० पर्याय
० प्रकार
२. अनायतन सेवन का निषेध
३. आयतन - अनायतन सेवन की फलश्रुति
१. आयतन - अनायतन: परिभाषा
जत्य साहम्मिया बहवे, सीलमंता बहुस्सुया । चरित्तायारसंपन्ना, आययणं तं वियाणाहि ॥ (ओनि ७८३) बहुत से साधर्मिक साधु बहुश्रुत, शीलसंपन्न और चारित्राचारसंपन्न होते हैं, वह आयतन है । जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । लिंगवेसपडिच्छन्ना, अणायतणं तं वियाणा हि ॥ (ओनि ७८१)
जहां बहुत से साधु चंचल ( व्याक्षिप्त, व्याकुल) चित्त वाले, अनार्य, मात्र लिंग और वेपवारी होते हैं, वह अनायतन है ।
एवमिण उवगरणं हवति गुणाणायतणं
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धारेमाणो विहीसुपरिसुद्धं । अविहिअसुद्धे
अणायणं । (ओनि ७६२ )
अनायतन सेवन का निषेध
आगमोक्त विधि से निर्दोष उपकरण आदि धारण करना गुणों का आयतन है । अविधि से अशुद्ध उपकरण आदि रखना अनायतन है ।
अह लोउत्तरियं पुण अणायतणं भावतो मुणेयव्वं । जे संजमजोगाणं करेंति हाणि समत्थावि ॥
(ओनि ७६९) जहां मुनि समर्थ होने पर भी संयमयोगों की हानि करते हैं, वह लोकोत्तर भाव अनायतन है । पर्याय
सावज्जमणायतणं असोहिठाणं कुसीलसंसग्गी । एगट्ठा होंति पदा एते विवरीय आययणा ।। (ओनि ७६३) अनायतन के पर्याय - सावद्य (अविशुद्ध, सपाप), अनायतन, अशोधिस्थान, कुशीलसंसर्ग ।
आयतन के पर्याय — असावद्य ( निर्दोष, परिशुद्ध ) आयतन, शोधिस्थान, सुशीलसंसर्ग ।
प्रकार
आययपि यदुविहं दव्वे भावे य होइ नायव्वं । दव्वंमि जिणघराई भावंमि य होइ तिविहं तु ॥ (ओनि ७८२)
आयतन के दो प्रकार हैं
१. द्रव्य आयतन - जिनमन्दिर आदि । २. भाव आयतन - ज्ञान, दर्शन, चारित्र । २. अनायतन - सेवन का निषेध
खणमवि न खमं गंतुं अणायतणसेवणा सुविहियाणं । जंगंध होइ वर्ण तंगंध मारुओ
वाइ ॥
(ओनि ७६७ )
सुविहित मुनि क्षणभर के लिए भी अनायतन का सेवन नहीं करते । उपवन जिस गंध वाला होता है, उसमें से प्रवाहित पवन भी उसी गंध वाला होता है ।
नया लभेज्जा निउणं सहाय,
गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एक्को वि पावाइं विवज्जयंतो,
विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो || ( दचूला २।१० )
यदि कदाचित् अपने से अधिक गुणी समान गुण वाला निपुण साथी न मिले कर्मों का वर्जन करता हुआ काम भोगों में अकेला ही ( संघ स्थित ) विहार करे ।
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अथवा अपने तो मुनि पाप
अनासक्त रह
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