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________________ मतिज्ञान की प्रतिपन्नता... १७. मतिपूर्वक श्रुत मइव्वं सुयं न मई सुयपुब्विया । ( नन्दी ३५ ) श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, मतिज्ञान श्रुतपूर्वक नहीं होता । इह लद्धिमइसुयाई समकालाई, न मइवं सुयमिह पुण सुअवओगो तूवओगो सिं । मइप्पभवो ॥ ( विभा १०८ ) श्रुत मतिपूर्वक होता है- यह कथन उपयोग की अपेक्षा से है, न कि लब्धि की अपेक्षा से । क्योंकि मति और श्रुत की प्राप्ति (लब्धि ) समकालीन होती है, पहले पीछे नहीं । श्रुत का उपयोग मति से प्रसूत है । सर्वत्रापि पूर्वमवग्रहादिरूपं मतिज्ञानमुदयते पश्चाद् श्रुतम् । मतिपूर्वं च श्रुतमुच्यते उपयोगापेक्षया । न खलु मत्युपयोगेन सञ्चिन्त्य श्रुतग्रन्थानुसारि विज्ञानमासा - दयति जन्तुः । सम्यक्त्वोत्पत्तिकाले समकालं मतिश्रुते लब्धिमात्रमेवाङ्गीकृत्य प्रोच्यते, न तूपयोगम् । ( नन्दी मवृ प ७० ) पहले मतिज्ञान होता है, फिर श्रुतज्ञान- यह कथन उपयोग की अपेक्षा से । मति के उपयोग के बिना ग्रन्थानुसारी श्रुतज्ञान प्राप्त नहीं होता । लब्धि की अपेक्षा से सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय मति और श्रुत को समकालीन कहा गया है। उपयोग की अपेक्षा से मति और श्रुत समकालीन नहीं हैं । १८. द्रव्यश्रुतपूर्वक मति सोऊण जा मई....। सा दव्वसुयप्पभवा भावसुयाओ मई नत्थि ॥ ( विभा १०९ ) किसी के शब्द को सुनकर जो मति उत्पन्न होती है, वह द्रव्यश्रुत से प्रसूत है । भावश्रुतपूर्वक मति नहीं होती । १६. मतिज्ञान का क्षेत्र Jain Education International ११९ खेत्तं हवेज्ज चोदसभागा सत्तोवर अहे पंच । इलिआईए विग्गहगयस्स गमणेऽहवाऽऽगमणे ॥ ( विभा ४३० ) लोक चौदह रज्जु प्रमाण है । मतिज्ञानी का क्षेत्र है - ऊर्ध्व लोक में सात रज्जु तथा अधोलोक में पांच रज्जु । विग्रहगतिसमापन्न जीव इलिकागति से अनुत्तर विमान में जाता है अथवा वहां से आता है, तब सात आभिनिबोधिक ज्ञान रज्जुप्रमाण क्षेत्र का स्पर्श करता है तथा जो जीव छठी नरक में जाता है अथवा वहां से आता है, तब पांच रज्जुप्रमाण क्षेत्र का स्पर्श करता है । २०. साकारोपयोग और मतिज्ञान सागावउत्तो पडिवज्जति, णो अणागारोवउत्तो । जम्मि समए पडवणी आभिणिबोहियणाणं तंमि समए सो जीवो सागा रोवउत्तो लब्भति । ( आवचू १ पृ १९, २० ) साकार उपयोग में उपयुक्त जीव मतिज्ञान प्राप्त करता है, अनाकार उपयोग में नहीं । जिस समय जीव मतिज्ञान प्राप्त करता है, उस समय वह साकारोपयोग में उपयुक्त होता है । २१. मतिज्ञान से शून्य जीव एगिदियजाईओ सम्मामिच्छो य जो य अपरित्ताऽभव्वा अचरिमा य एए सव्वण्णू । सया सुण्णा ॥ ( विभा ४११ ) एकेन्द्रिय जीव (पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति), सम्यक्मथ्यादृष्टि, सर्वज्ञ, अ-परीत, अभव्य, अ- चरम - ये सब मतिज्ञान से सदा शून्य होते हैं । २२. मतिज्ञान : विरहकाल एगस्स जहन्नेणं पोग्गलपरिअदृद्धं देसूणं एक व्यक्ति की अपेक्षा सम्यक्त्व से प्रतिपतित मतिज्ञान का अन्तरकाल - विरहकाल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः देशोन अर्धपुद्गलपरावर्त है । अंतरमन्तोमुहुत्तमुक्कोसं । बहु ॥ For Private & Personal Use Only ( विभा ४३७ ) २३. ज्ञान उत्पत्ति और नय सम्मत्त - नाणरहियस्स नाणमुप्पज्जइत्ति ववहारो । नेच्छाइयनओ भासइ उप्पज्जइ तेहि सहिअस्स || ( विभा ४१४ ) सम्यक्त्व और ज्ञान से रहित मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव में ज्ञान उत्पन्न होता है यह व्यवहारनय का अभिमत है । निश्चयनय के अनुसार सम्यक्त्व और ज्ञान से सहित जीव में ही ज्ञान उत्पन्न होता है । २४. मतिज्ञान की प्रतिपन्नता प्रतिपद्यमानता विलाऽविसुद्धलेसा मणपज्जवणाणिणो अणाहारा । असण्णी अणागारोवओगिणो afsaar || www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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