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आलोचना किससे ?
पर्याय
आलोयणा वियडणा सोही सब्भावदायणा चेव । निंदण गरिह विउट्टण सल्लुद्धरणंति एगट्ठा । (ओनि ७९१ ) आलोचनं विकटनं प्रकाशनमाख्यानं प्रादुष्करणमित्यनर्थान्तरम् । ( उशावृप ६०८ ) आलोचना, विकटना, शोधि, सद्भावदर्शन, निन्दा, गर्हा, विकुट्टन, शल्योद्धरण, प्रकाशन, आख्यान और प्रा दुष्करण--- ये आलोचना के पर्याय हैं ।
प्रकार
आलोयणा उदुविहा मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । (ओनि ७९० ) आलोचना के दो प्रकार हैं- मूलगुणों की आलोचना, उत्तरगुणों की आलोचना ।
विधि
जह बालो जंपतो कज्जमकज्जं व उज्जयं भणइ । तं तह आलोएज्जा मायामयविप्पमुक्को
( ओनि ८०१ ) जैसे एक बालक अपने कार्य अकार्य को सरलता से बता देता है, वैसे ही साधक को माया और अहंकार से मुक्त होकर आलोचना करनी चाहिए । आहच्च चंडालियं कट्टु न निण्हविज्ज कडं कडे त्ति भासेज्जा, अकडं तो कडे
कयाइ वि । ति य । (१1११)
भिक्षु सहसा चण्डालोचित कर्म कर उसे कभी भी न छिपाए । अकरणीय किया हो तो किया और नहीं किया। हो तो न किया कहे ।
२. आलोचना कब करे ?
अव्वक्खित्ता उत्तं उवसंतमुवट्टियं च अणुन्नवेत्तु मेहावी आलोएज्जा
उ ।।
जब गुरु अव्याक्षिप्त/ अक्लांत, उपयुक्त, अनाकुल और आलोचना सुनने में तत्पर हों, अनुजा प्राप्त कर मुनि आलोचना करे ।
नाऊणं । सुसंजए || (ओनि ५१५ ) उपशांततब गुरु से
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काले य पहुप्पंते उच्चाओ वावि ओहमालोए । वेला गिलाणगस्स व अइच्छइ गुरू व उच्चाओ ॥ पुरकम्मपच्छकम्मे, अप्पेsसुद्धे य ओहमालोए । तुरियकरणंमि जं से न सुज्झई तत्तिअं कहए ॥ (ओनि ५१८,५१९)
आलोचना
आलोचनाकाल पर्याप्त न हो-आलोचना करतेकरते यदि सूर्य अस्त हो रहा हो, रोगी की परिचर्या - वेला का अतिक्रमण हो रहा हो, आलोचक स्वयं श्रान्त हो या गुरु श्रान्त हों तो उस समय संक्षेप में ही आलोचना करे । यथा - पश्चात्कर्म, पुरःकर्म का आसेवन किया । आधाकर्म का दोष लगा इत्यादि ।
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अन्य शीघ्र करणीय कार्य हो तो आसेवित दोष संबंधी बात उतनी ही बतानी चाहिये, जिसे बिना बताये शुद्धि न हो ।
३. आलोचना किससे ?
..... एक्केक्का चउकन्ना दुवग्ग सिद्धावसाणा य ॥ द्वयोरपि साधुसाध्वीवर्गयोरेकैकस्य चतुष्कर्णा भवति, एक आचार्यो द्वितीयश्चालोचकः साधुः एवं साधुवर्गे चतुष्कर्णा भवति । साध्वीवर्गेऽपि चतुष्कर्णा भवति, एका प्रवर्तिनी द्वितीया तस्या एव या आलोचयति साध्वी द्वयोश्च साधुसाध्वीवर्ग योमिलितयोरष्टकर्णा भवति । कथम् ? आचार्य आत्मद्वितीयः प्रवर्तिनी चात्मद्वितीया आलोचयति यदा तदाऽष्टकर्णा भवति, सामान्यसाध्वी वा यद्यालोचयति तदाऽप्यष्टकर्णेवेति । अहवा छकन्ना होज्जा यदा वुड्ढो आयरिओ हवइ तदा एगस्सवि साहुणी दुगं आलोएइ एवं छकन्ना हवति । सव्वहा साहुणीए अप्पबितियाए आलोएअव्वं न उएगागिणीएत्ति । एवं तावदुत्सर्गत आचार्याय आलोचयति, तदभावे सर्वदेशेषु निरूपयित्वा गीतार्थायालोचयितव्यं, एवं तावद्यावत्सिद्धानामप्यालोच्यते साधूनामभावे | (ओनि ७९० ; वृ प २२५)
साधु-साध्वीवर्ग की आलोचना चतुष्कर्णा होती हैसाधुवर्ग - आचार्य और आलोचना करने वाला साधु । साध्वीवर्ग - प्रवर्तिनी और आलोचना करने वाली साध्वी ।
जब प्रवर्तिनी अथवा अन्य साध्वी आलोचना करती है, आलोचना अष्टकर्णा होती है - एक आचार्य और एक साधु, एक प्रवर्तिनी और एक साध्वी ।
यदि वृद्ध आचार्य के पास आलोचना करे तो वह षट्कर्णा भी होती है एक आचार्य, एक प्रवर्तिनी और एक साध्वी । आचार्य के पास अकेली साध्वी आलोचना न करे, कम से कम दो साध्वियां अवश्य हों । सामान्यतः आलोचना आचार्य के पास ही करे ।
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