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आभिनिबोधिक ज्ञान
मतिज्ञान का विषय
तीसे णं इमे एगट्रिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंच को जानता है, देखता नहीं। क्षेत्र की अपेक्षा से वह नामधिज्जा भवंति, तं जहा १. धरणा २. धारणा सामान्यतया सब क्षेत्रों को जानता है, देखता नहीं। ३. ठवणा ४. पइदा ५. कोठे। (नन्दी ४९) काल की अपेक्षा से वह सामान्यतया सर्व काल को
धारणा के नाना घोष और नाना पर्याय वाले पांच जानता है, देखता नहीं। भाव की अपेक्षा से वह एकार्थक हैं -धरणा, धारणा, स्थापना, प्रतिष्ठा और सामान्यतया सब भावों को जानता है, देखता नहीं। कोष्ठ।
आएसो त्ति पगारो, ओहादेसेण सव्वदव्वाइं । धारणा छव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-सोइंदियधारणा,
धम्मत्थिआइयाई जाणइ, न उ सव्वभेएणं ॥ चक्खिदियधारणा, जिभिदियधारणा, फासिदियधारणा,
खेत्तं लोगालोग, कालं सव्वद्धमहव तिविहं ति। नोइंदियधारणा।
(नन्दी ४८)
पंचोदइयाईए भावे, जं नेयमेवइयं ।। धारणा के छह प्रकार हैं-१. श्रोत्रेन्द्रिय धारणा,
(विभा ४०३, ४०४) २. चक्षुरिन्द्रिय धारणा, ३. घ्राणेन्द्रिय धारणा,
आभिनिबोधिकज्ञानी सामान्य प्रकार से धर्मास्ति४. जिव्हेन्द्रिय धारणा, ५. स्पर्शनेन्द्रिय धारणा, ६. नो
काय आदि सब द्रव्यों को जानता है, उनके सब पर्यायों इन्द्रिय धारणा।
को नहीं जानता। १२. आभिनिबोधिक ज्ञान ही मतिज्ञान
वह लोकालोक क्षेत्र और अतीत-वर्तमान-अनागत आभिनिबोधिकम् -अवग्रहादिरूपं मतिज्ञानमेव।
काल तथा उदय आदि पांच भावों को जानता है। ज्ञेय (नन्दीहावृ पृ १८)
इतना ही है। मतिशब्दोऽत्राभिनिबोधिकसमानार्थो द्रष्टव्यः ।
आदेशः -प्रकारः, स च द्विधा -- सामान्यरूपो आभिनिबोधिकं ह्यौत्पत्तिक्यादिमतिप्रधानत्वाद मतिरित्य
विशेषरूपश्च, तत्रेह सामान्यरूपो ग्राह्यः । तत आदेशेन --- प्युच्यते ।
(विभामव पृ ४८)
द्रव्यजातिरूपसामान्यादेशेन सर्व द्रव्याणि-धर्मास्तिकाया__ अवग्रह आदि रूप वाला आभिनिबोधिक ज्ञान मति- दीनि जानाति, किञ्चिद्विशेषतोऽपि । यथा धर्माज्ञान ही है।
स्तिकायो धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः तथा धर्मास्तिकायो मति शब्द आभिनिबोधिक के समान अर्थ वाला है। गत्युपष्टम्भहेतुरमूर्तो लोकाकाशप्रमाण इत्यादि । न औत्पत्तिकी आदि मति की प्रधानता के कारण आभि- पश्यति सर्वात्मना धर्मास्तिकायादीन्न पश्यति, घटानिबोधिक ज्ञान मतिज्ञान भी कहलाता है।
दींस्तु योग्यदेशावस्थितान पश्यत्यपि ।
(नन्दीमवृ प १८४) १३. श्रुतनिरपेक्ष मति ही शुद्ध मतिज्ञान
आदेश का अर्थ है-प्रकार । उसके दो भेद हैंजे अक्खराणुसारेण मइविसेसा तयं सुयं सव्वं ।।
सामान्य और विशेष । यहां उसका सामान्यरूप ग्राह्य जे उण सुयनिरवेक्खा सुद्धचिय तं मइन्नाणं ॥
(विभा १४४)
मतिज्ञान सामान्यरूप से धर्मास्तिकाय आदि सब अक्षर (श्रुत-ग्रन्थ) का अनुसरण करने वाली मति
द्रव्यों को जानता है, कुछ अंशों में विशेषरूप से भी विशेष श्रुतज्ञान है। श्रुतनिरपेक्ष मति ही शुद्ध मतिज्ञान
जानता है। यथा-धर्मास्तिकाय गतिसहायक द्रव्य है।
वह अमूर्त और लोकाकाशप्रमाण है। मतिज्ञान उचित १४. मतिज्ञान का विषय
देश में अवस्थित घट आदि को देखता भी है, किन्तु दव्वओ णं आभिणिबोहियनाणी आएणं सव्वदव्वाई
धर्मास्तिकाय आदि को सर्वात्मना नहीं देखता। जाणइ, न पास। खेत्तओ णं आभिगिबोहियनाणी आएसो त्ति व सुत्तं, सुउवलद्धेसु तस्स मइनाणं । आएसेणं सव्वं खेत्तं जाणइ, न पासइ। कालओ णं पसरइ तब्भावणया विणा वि सुत्तानुसारेण ॥ आभिणिबाहियनाणी आएसेणं सव्वं कालं जाणइ, न
(विभा ४०५) पासइ। भावओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वे आदेश का अर्थ है---श्रुत । श्रुत से उपलब्ध अर्थ में भावे जाणइ, न पास इ।
(नन्दी ५४) मतिज्ञान प्रवत्त होता है। श्रतोपयोग के बिना भी श्रत द्रव्य की अपेक्षा से मतिज्ञानी सामान्यतया सब द्रव्यों की वासना मात्र से मतिज्ञान उस अर्थ का स्वतन्त्र
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