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धारणा : परिभाषा
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आभिनिबोधिक ज्ञान चक्विदियअवाए, घाणिदियअवाए, जिभिदियअवाए, स्तस्याऽर्थोपयोगस्य यदावरणं कर्म तस्य क्षयोपशमेन जीवो फासिदियअवाए, नोइंदियअवाए। (नन्दी ४६) युज्यते, येन कालान्तरे इन्द्रियव्यापारादिसामग्रीवशात ___ अवाय छह प्रकार का है-१. श्रोत्रेन्द्रिय अवाय, पुनरपि तदर्थोपयोगः स्मृतिरूपेण समुन्मीलति । सा चेयं २. चक्षरिन्द्रिय अवाय, ३. घ्राणेन्द्रिय अवाय, तदावरणक्षयोपशमरूपा वासना नाम द्वितीयस्तभेदो ४. जिव्हेन्द्रिय अवाय, ५. स्पर्शनेन्द्रिय अवाय,
भवति । कालान्तरे च वासनावशात तदर्थस्येन्द्रियरुप६. नोइन्द्रिय अवाय।
लब्धस्य अथवा तैरनुपलब्धस्याऽपि मनसि या स्मृतिअवाय औपचारिक अर्थावग्रह
राविर्भवति, सा तृतीयस्तद्भेदः। (विभामवृ पृ १४५)
. धारणा के तीन रूप हैं --- सम्वत्थेहावाया निच्छयओ मोत्तुमाइसामण्णं ।। संववहारत्थं पुण सव्वत्थाऽवग्गहोऽवाओ ।।
१. अविच्युति -जब तक अपाय द्वारा निर्णीत अर्थ में (विभा २८५)
उपयोग की धारा का सातत्य रहता है, उससे निवृत्ति
नहीं होती है, तब तक धारणा का प्रथम भेदसर्वत्र विषयपरिच्छेदे कर्तव्ये निश्चयतः परमार्थत
अविच्युति होता है। ईहाऽपायौ भवतः । ईहा, पुनरपाय: पुनरीहा, पुनर
२. वासना-उस अर्थोपयोग के आवारक कर्म के प्यपायः इत्येवं क्रमेण यावदन्त्यो विशेषः, तावदीहा
क्षयोपशम से जीव उस उपयोग से युक्त होता है। ऽपायावेव भवतः, नाऽर्थावग्रहः ।'आद्यमव्यक्तं सामान्य
इससे कालान्तर में इन्द्रिय-प्रवृत्ति के अनुकूल मात्रालम्बनमेकसामयिकं ज्ञानं मुक्त्वाऽन्यत्रेहाऽपायौ
सामग्री मिलने पर वह अर्थोपयोग पुनः स्मृति के भवतः । इदं पुनर्नेहा, नाऽप्यपाय:, किन्त्वर्थावग्रह एवेति
रूप में व्यक्त होता है। यह तदावरण का क्षयोपशम भावः। संव्यवहाराथं व्यावहारिकजनप्रतीत्यपेक्षं पूनः
रूप धारणा का दूसरा भेद है -- वासना । सर्वत्र यो योऽपायः स स उत्तरोत्तरेहाऽपायापेक्षया, एष्यविशेषापेक्षया चोपचारतोऽर्थावग्रहः । (विभामव पृ १४२)
३. स्मृति --कालान्तर में वासना के कारण इन्द्रियों के
द्वारा उपलब्ध अथवा अनुपलब्ध उस अर्थ की मानसनैश्चयिक दृष्टि के अनुसार विषय का परिच्छेद हो
पटल पर स्मृति उभरती है । यह धारणा का तीसरा जाने पर, सर्वत्र अन्तिम विशेष तक पुनः पुनः ईहा और
भेद है। अपाय होते रहते हैं, अर्थावग्रह नहीं होता। केवल आदिसामान्य इसका अपवाद है-प्रथम एक सामयिक अव्यक्त
तस्यैवार्थस्य निर्णीतस्य धरणं धारणा। सा च सामान्य मात्र के ज्ञान में अर्थावग्रह होता है, ईहा और
त्रिधा-अविच्युतिर्वासना स्मृतिश्च । तत्र तदुपयोगादअपाय नहीं होते । सांव्यवहारिक दृष्टि के अनुसार
विच्यवनमविच्युतिः । सा चान्तमहूर्तप्रमाणा। ततस्तयाउत्तरोत्तर ईहा और अपाय की अपेक्षा तथा भावी विशेष
ऽऽहितो यः संस्कारः स वासना । सा च संख्येयमबोध की अपेक्षा अपाय को भी औपचारिक अर्थावग्रह
संख्येयं वा कालं यावद् भवति । तत: कालान्तरे कुतश्चित्ताकहा जा सकता है।
दशार्थदर्शनादिकारणात् संस्कारस्य प्रबोधे यज्ज्ञानमुदयते
तदेवेदं यत् मया प्रागुपलब्धमित्यादिरूपं सा स्मृतिः । ११. धारणा : परिभाषा
(नन्दीमवृ प १६८) तयणंतरं तयत्थाविच्चवणं जो य वासणाजोगो।
अवाय द्वारा निर्णीत अर्थ को धारण करना धारणा कालंतरे य जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ॥ है। उसके तीन प्रकार हैं --१. अविच्युति २. वासना,
__ (विभा २९१) ३. स्मृति । उपयोग (ज्ञान की प्रवृत्ति) की धारा का अपाय के अनन्तर उस निर्णीत अर्थ की अविच्युति, अविच्छिन्न रहना अविच्युति है। इसका कालमान अन्ततदावरण कर्म के क्षयोपशम से वासना रूप में अर्थ का। महत प्रमाण है। इसके द्वारा आहित/स्थापित संस्कार उपयोग और कालान्तर में पुनः उसका अनुस्मरण करना का नाम है वासना । यह संख्येय या असंख्येय काल तक धारणा है।
होती है । कालान्तर में कहीं पहले जैसा पदार्थ देखने से अपायेन निश्चितेऽर्थे तदनन्तरं यावदद्यापि तदर्थोपयोगे संस्कार जागत होने पर 'यह वही है, जिसे मैंने पहले
त तस्माद निवर्तते. तावत तदर्थोपयो- उपलब्ध किया था'-ऐसा ज्ञान उदित होता है, यह गादविच्युति म सा धारणायाः प्रथमभेदो भवति । तत- स्मृति है।
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