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मति और श्रुत में भेद
चिन्तन करता है ।
सूत्रादेशात्सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानाति, न तु साक्षात् सर्वाणि पश्यति । श्रुतभावितमतेः श्रुतोपलब्धेष्वपि अर्थेषु सूत्रानुसारमात्रेण येऽवग्रहेहापायादयो बुद्धिविशेषाः प्रादुष्यन्ति ते मतिज्ञानमेव, न श्रुतज्ञानं, सूत्रानुसारनिरपेक्षत्वात् । ( नन्दीमवृप १८४ ) मतिज्ञान सूत्रादेश से ( सूत्र के आधार पर ) धर्मास्तिकाय आदि सब द्रव्यों को जानता है, उन्हें साक्षात् नहीं देखता । श्रुत से भावित मति वाला पुरुष श्रुत से कुछ अर्थों को जानता है, वह मात्र श्रुतानुसारी है, इसलिए उसमें होने वाले अवग्रह, ईहा आदि ज्ञान के विशेष प्रकार मतिज्ञान के ही भेद हैं । श्रुत से निरपेक्ष होने के कारण वह श्रुतज्ञान नहीं है ।
१५. मति और श्रुत में भेद
मत्थं ऊहिऊण णो निद्दिसति तं आभिणिबोहियणाणं भणति । ....जो पुण अत्थं ऊहिऊण निद्दिसइ तं
सुणा भण्णइ ।
( आवचू १ पृ७, ८)
जो अर्थ का विमर्श कर उसका निर्देश नहीं करता, वह मतिज्ञान है । जो विमर्शपूर्वक अर्थ का निर्देश करता है, वह श्रुतज्ञान है ।
लक्खणभेआ हेऊ फलभावओ भेयइन्दियविभागा । वाग- क्खर - मुंए-यर भेआभेओ मइ सुयाणं ॥ ( विभा ९७ ) मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में निम्न दृष्टियों से भेद है -
१. लक्षण भेद - दोनों के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं । २. हेतु - फल - मतिज्ञान हेतु है, श्रुतज्ञान फल है । ३. भेद-विभाग- दोनों के विभाग भिन्न-भिन्न हैं । अवग्रह आदि मतिज्ञान के विभाग हैं, अक्षर श्रुत, अनक्षर श्रुत आदि श्रुतज्ञान के विभाग हैं ।
४. इन्द्रिय-विभाग -- श्रुतज्ञान केवल श्रोत्रेन्द्रिय से संबंधित है, मतिज्ञान शेष इन्द्रियों से संबंधित है ।
५. कारण कार्य - मतिज्ञान कारण है, श्रुतज्ञान कार्य है । ६. अनक्षर-अक्षर - मतिज्ञान अनक्षर है, श्रुतज्ञान अक्षर है । ७. मूक अमूक - मतिज्ञान मूक है, श्रुतज्ञान अमूक है ।
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आभिनिबोधिक ज्ञान
लक्षण की दृष्टि से ....अभिनिबुज्झइ त्ति आभिणिबोहियं, सुणेड त्ति सुयं । ( नन्दी ३५ ) जो जाना जाता है, वह मतिज्ञान है । जो सुना जाता है, वह श्रुतज्ञान है ।
दृष्टश्च परस्परमनुगतयोरपि लक्षणभेदाभेदः । अभिमुखं - योग्यदेशे व्यवस्थितं नियतमर्थमिन्द्रियमनोद्वारेण बुध्यते आत्मा येन परिणामविशेषेण स परिणामविशेषो ज्ञानापरपर्याय आभिनिबोधिकम् । शृणोति वाच्यवाचकभावपुरस्सरं श्रवणविषयेन शब्देन सह संस्पृष्टमर्थं परिच्छिनत्त्यात्मा येन परिणामविशेषेण स परिणामविशेषः श्रुतम् । ( नन्दीमपृ प १४० ) परस्पर अनुगत होने पर भी मति और श्रुत अपनेअपने लक्षण से भिन्न हैं। जिस परिणाम विशेष से आत्मा इन्द्रिय और मन के माध्यम से योग्य देश में अवस्थित नियत अर्थ को जानती है, वह परिणामविशेष आभिनिबोधिक ज्ञान है ।
आत्मा जिस परिणाम विशेष से वाच्यवाचक संबंधयुक्त शब्द से संस्पृष्ट अर्थ को सुन्ती - जानती है, वह परिणामविशेष श्रुतज्ञान है ।
हेतु-फल की दृष्टि से
म
सुयमुत्तं न मई सुयपुव्विया विसेसोऽयं । पुवं पूरण- पालणभावाओ जं मई तस्स ॥ ( विभा १०५ ) श्रुत मतिपूर्वक होता है, मति श्रुतपूर्वक नहीं होतीयह दोनों में भेद है। श्रुत की प्राप्ति तथा वैशिष्ट्य सम्पादन के कारण मतिपूर्वक श्रुत कहा गया है ।
मत्या पूर्यते प्राप्यते श्रुतम् । न खलु मतिपाटवविभवमन्तरेण श्रुतविभवमुत्तरोत्तरमासादयति जन्तुः । यच्च यदुत्कर्षापकर्षवशादुत्कर्षापकर्षभाक् तत्तस्य कारणं, यथा घटस्य मृत्पिण्ड: । पाल्यते अवस्थिति प्राप्यते मत्या श्रुतं श्रुतेष्वपि बहुषु ग्रंथेषु यद्विषयं स्मरणमीहापोहादि वा अधिकतरं प्रवर्तते स ग्रंथ: स्फुटतरः प्रतिभाति, न शेषाः । ( नन्दीमवृप १४१ )
मति से श्रुत की प्राप्ति होती । मतिपाटव के वैभव के बिना श्रुत का वैभव उत्तरोत्तर प्राप्त नहीं होता । एक वस्तु का उत्कर्ष और अपकर्ष जिस दूसरे द्रव्य के अधीन होता है, वह उसका कारण बनता है ।
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