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आभिनिबोधिक ज्ञान
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अवग्रहचतुष्टयी : परिभाषा
श्रुत संस्कार से निरपेक्ष सहज मति अश्रुतनिश्रित वस्तु का सामान्य अवग्रहण अवग्रह है। वस्तुधर्म मति है । वह औत्पत्तिकी आदि बुद्धि चतुष्करूप है। का विचार करना ईहा है। ईहित वस्तु का नैश्चयिक श्रुतनिश्रित मति
ज्ञान अवाय है। वस्तु के निश्चित ज्ञान की अविच्युति,
वासना और स्मृति धारणा है। शास्त्रपरिकमितमतेरुत्पादकाले शास्त्रार्थपर्यालोचनमनपेक्ष्यैव यदुपजायते मतिज्ञानं तत् श्रुतनिश्रितम् ।
सामण्णत्थावग्गहणमुग्गहो भेयमग्गणमहेहा । (नन्दीमत् प १४४) तस्सावगमोऽवाओ अविच्च ई धारणा तस्स ।।
(विभा १८०) जिसकी मति शास्त्र के अध्ययन से परिष्कृत हो गई
__वस्तु का सामान्य अवग्रहण अवग्रह, वस्तु के भेद की है, उस व्यक्ति को ज्ञान की उत्पत्ति के समय शास्त्र की
मार्गणा ईहा, वस्तु का निश्चय अवाय और उस निश्चय पर्यालोचना के बिना जो मतिज्ञान उत्पन्न होता है, वह
की अविच्युति धारणा है । श्रुतनिश्रित है।
उत्पत्ति का क्रम अश्रुतनिश्रित मति
उक्कमओऽइक्कमओ एगाभावे वि वा न वत्थुस्स । सर्वथा शास्त्रसंस्पर्शरहितस्य तथाविधक्षयोपशम
जं सब्भावाहिगमो, तो सब्वे नियमियक्कमा य॥ भावत एवमेव यथावस्थितवस्तुसंस्पशि मतिज्ञानमुपजायते
(विभा २९५) तत् अश्रुतनिश्रितम् ।
(नन्दीमवृ प १४४)
अवग्रह आदि चारों का क्रम नियमित है। इनका शास्त्र-संस्पर्श से सर्वथा रहित, तथाविध क्षयोपशम
उत्क्रम या व्यतिक्रम होने पर अथवा एक का भी अभाव से जो यथार्थ वस्तुसंस्पर्शी मतिज्ञान होता है, वह अश्रुत- होने पर वस्तु के स्वभाव का अवबोध नहीं होता। निश्रित मति है।
ईहिज्जइ नाऽगहियं नज्जइ नाणीहियं न याऽनायं । अश्रुतनिश्रित के प्रकार
धारिज्जइ जं वत्थु तेण कमोऽवग्गहाई उ । असूयनिस्सियं चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा
(विभा २९६) उप्पत्तिया वेणइया, कम्मया पारिणामिया ।
अवग्रह से अगृहीत वस्तु में ईहा प्रवृत्त नहीं होती।
अनीहित (अविचारित) का अवाय (निश्चय) नहीं बुद्धी चउव्विहा वुत्ता, पंचमा नोवलब्भई ॥
होता । अनिश्चित अथवा अज्ञात अर्थ की धारणा नहीं (नन्दी ३८१)
होती। इसलिए अवग्रह आदि क्रमशः होते हैं। अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार प्रकार हैं
एतो च्चिय ते सव्वे भवंति भिन्ना य व समकालं । १. औत्पत्तिकी बुद्धि, २. वैनयिकी बुद्धि , ३. कर्मजा
न वइक्कमो य तेसि न अन्नहा नेयसब्भावो । बुद्धि, ४. पारिणामिकी बुद्धि । बुद्धि के ये चार प्रकार
(विभा २९७) हैं, पांचवां प्रकार उपलब्ध नहीं होता। (द्र. बुद्धि)
अवग्रहचतुष्टयी उत्तरोत्तर वस्तु के विशेष पर्याय को ४. श्रुतनिश्रित के प्रकार
ग्रहण करती है, अतः यह भिन्न-परस्पर असंकीर्ण है। सूयनिस्सियं चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा-उग्गहे ईहा
ये चारों समकालीन-युगपत् नहीं होते क्योंकि इनका अवाओ धारणा।
(नन्दी ३९)
उत्पत्ति-काल भिन्न है। इनका व्युत्क्रम (या उत्क्रम) भी श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार प्रकार हैं -
नहीं होता । ज्ञेय का स्वभाव ऐसा ही है। वह केवल
अवग्रह, केवल ईहा, केवल अवाय या केवल धारणा से १. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवाय, ४. धारणा।।
नहीं जाना जा सकता। ५. अवग्रहचतुष्टयो : परिभाषा
कालमान अत्थाणं उग्गहणं, च उग्गह तह वियालणं ईहं । उग्गहे इक्कसामइए, अंतोमुहुत्तिया ईहा, अंतोमुहुववसायं च अवायं, धरणं पुण धारणं बिंति ॥ त्तिए अवाए, धारणा संखेज्ज वा कालं असंखेज्जं वा (नन्दी ५४१२) कालं।
(नन्दी ५०)
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