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श्रुतनिश्रित-अश्रुतनिश्रित
आभिनिबोधिक ज्ञान परिभाषा
वाले अच्युत आदि विमानों में तीन बार उत्पन्न होने वाले अभिनिबोध:--तदावरणकर्मक्षयोपशमः । तेन निर्वत्त
मतिज्ञानी देवों का लब्धिकाल छियासठ सागरोपम है। माभिनिबोधिकम् । इन्द्रियमनोनिमित्तो योग्यदेशावस्थित
इसमें मनुष्य भव का कालमान मिलाने पर साधिक हो वस्तुविषयः स्फूटप्रतिभासो बोधविशेषः ।
जाता है। यह कथन एक मतिज्ञानी की अपेक्षा से है। (नन्दीमवृ प ६५)
अनेक मतिज्ञानी जीवों की अपेक्षा मतिज्ञान का कालमान आभिनिबोधिक ज्ञान अभिनिबोधावरण कर्म (मति
सर्वकाल है। ज्ञानावरण कर्म) के क्षयोपशम से निष्पन्न है।
दृष्टान्त यह इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला तथा
एत्थ निदरिसणं जहा–कस्सइ मंदपगासाए रयणीए उचित क्षेत्र में अवस्थित वस्तु को ग्रहण करने वाला
पूरिसप्पमाणमेत्तं खाणं दट्टण चिता समुप्पज्जति कि पूण स्पष्ट अवबोध है।
एस पुरिसो भविज्ज उदाहु खाणुत्ति ? ततो तं खाणं पर्याय
वल्लिविणद्धं दळूण पक्खि वा तहिं णिलीणं पासिऊणं : ईहा अपोह वीमंसा मग्गणा य गवेसणा । आभिणिबोधो भवति जहा एवं खाणुत्ति । तं च जइ . सण्णा सई मई पण्णा सव्वं आभिणिबोहियं ॥ अभिमुहमत्थं जाणति णो विवरीयं ततो आभिणिबोहियं
(नन्दी ५४।६) भवति । अभिमुहमत्थं णाम जो खाणुं खाणुं चेव अभिणिईहा, अपोह, विमर्श मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, बुज्झति ण पुण खाणुं पुरिसं मण्णति, एयं अभिमुहमति और प्रज्ञा - ये सब आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्याय मत्थं भण्णति ।
(आवचू १ पृ ७, ८)
रात्रि में मंद प्रकाश के कारण पुरुषप्रमाण स्थाणु मइपन्नाभिणिबोहियबुद्धीओ होंति वयणपज्जाया। को देखकर व्यक्ति सोचता है - यह पुरुष है अथवा जा उग्गहाइसण्णा ते सव्वे अत्थपज्जाया। स्थाणु ? वल्लियों से परिवेष्टित अथवा पक्षियों से युक्त
(विभा ३९८) उस स्थाणु को देखकर यह ज्ञात हो जाता है कि यह मति, प्रज्ञा, आभिनिबोधिक और बुद्धि–ये स्थाणु है । जो अभिमुख अर्थ को जानता है, विपरीत आभिनिबोधिक ज्ञान के वचन-पर्याय (सम्पूर्ण वस्तु के अर्थ को नहीं जानता, वह आभिनिबोधिक है। अभिमुख प्रतिपादक शब्द) हैं।
अर्थ का आशय है -सामने दिखाई देने वाले पदार्थ का अवग्रह, ईहा, अपोह आदि आभिनिबोधिक के अर्थ- सही बोध होना । जैसे -सामने स्थित स्थाणु को स्थाणु पर्याय (एकदेश प्रतिपादक शब्द) हैं ।
जानना, उसे पुरुष नहीं जानना। कालमान
२. आभिनिबोधिक ज्ञान के प्रकार ""एगस्स अणेगाण व उवओगंतोमुहत्ताओ।
आभिणिबोहियनाणं विहं पण्णत्तं, तं जहा-सुयलद्धी वि जहन्नेणं एगस्सेवं परा इमा होइ । निस्सियं च असुयनिस्सियं च ।
(नन्दी ३७) अह सागरोवमाइं छावद्धि सातिरेगाइं ॥
आभिनिबोधिक ज्ञान के दो प्रकार हैंदो वारे विजयाईसु गयस्स तिन्नच्चुए अहव ताई । १. श्रुतनिश्रित । २. अश्रुतनिश्रित । अइरेगं नरभवियं नाणाजीवाण सव्वद्धं ।
(विभा ४३४-४३६) ३. श्रुतनिश्रित-अश्रुतनिश्रित को परिभाषा - आभिनिबोधिकज्ञानी जघन्यतः और उत्कृष्टतः पूव्वं सुयपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयाईयं । अन्तर्मुहर्त तक उपयुक्त रह सकता है। आवरणक्षयोपशम
तं निस्सियमियरं पूण अणिस्सियं मइचउक्कंतं ।। की अपेक्षा से जघन्य लब्धिकाल भी अन्तर्महत ही है।
(विभा १६९) उत्कृष्ट काल साधिक छियासठ सागरोपम है।
जो मति श्रुत से परिकमित/संस्कारित है, किन्तु - तैतीस सागरोपम आयुष्य वाले विजय आदि अनुत्तर वर्तमान व्यवहारकाल में श्रुत से निरपेक्ष है, वह श्रुतविमानों में दो बार अथवा बावीस सागरोपम आयुष्य निश्रित मति है।
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