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अवग्रहचतुष्टयी : परिभाषा
आभिनिबोधिक ज्ञान
अवग्रह का कालमान एक समय, ईहा और अवाय
स्पर्शनेन्द्रिय, मन । का एक-एक अन्तर्मुहूर्त तथा धारणा का संख्येय अथवा अवाय-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, असंख्येय काल है।
स्पर्शनेन्द्रिय, मन । अत्थोग्गहो जहन्नो समयं सेसोग्गहादओ वीसं ।
धारणा-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, अंतोमुहुत्तमेगं तु वासनाधारणं मोत्तुं ॥
स्पर्शनेन्द्रिय, मन । अर्थावग्रहो निश्चय-व्यवहारभेदतो द्विधा। अति- तीन सौ छत्तीस प्रकार स्तोककालत्वेन जघन्यो नैश्चयिकोऽर्थावग्रह एकसमयं जं बहुबहुविह खिप्पानिस्सियनिच्छिय धूवेयरविभिन्ना । भवति । शेषास्तु"व्यञ्जनावग्रहव्यावहारिकार्थावग्र- पुणरुग्गहादओ तो तं छत्तीसत्तिसयभेयं ।। हेहावायाविच्युतिस्मृतिरूपा मतिभेदास्ते सर्वेऽपि विष्वक
(विभा ३०७) पृथगेकमेवाऽन्तर्मुहूत्तं भवन्ति । "अविच्युति-स्मृति- श्रुतनिश्रित मति के अवग्रह आदि अठाईस भेदों को वासनाभेदाद् धारणा त्रिविधा।""स्मृतेर्बीजभूता वासनाख्या बहु-अबहु, बहुविध-अबहुविध, क्षिप्र-अक्षित, अनिश्रितधारणा, सा संख्येयवर्षायुषां सत्त्वानां संख्येयं कालं,
निश्रित, निश्चित-अनिश्चित, ध्रुव-अध्रव-इन बारह असंख्येयवर्षायषां त पल्योपमादिजीविनामसंख्येयं कालं भेदों से गुणन करने पर आभिनिबोधिक ज्ञान के २८x भवति।
विभा ३३४ मव ५ १६८) १२=३३६ भेद होते हैं। ___ अर्थावग्रह दो प्रकार का है -निश्चय और व्यवहार। बहु-बहुविध आदि अवग्रह की परिभाषा नैश्चयिक अर्थावग्रह अत्यन्त अल्पकालिक होता है। नाणासद्दसमूहं बहुं पिहं मुणइ भिन्नजाईयं । उसका कालमान एक समय है।
बहुविहमणेगभेयं एक्केक्कं निद्धमहुराई । शेष -व्यञ्जनावग्रह, व्यावहारिक अर्थावग्रह, ईहा, खिप्पमचिरेण तं चियं सरूवओ जं अणिस्सियमलिगं । अवाय तथा अविच्युति और स्मृति (धारणा के प्रथम दो निच्छियमसंसयं जं धुवमच्चंतं न उ कयाइ । भेद)- इनमें से प्रत्येक का कालमान अन्तर्मुहूर्त है।
(विभा ३०८, ३०९) स्मृति की जननी वासना (धारणा का तीसरा भेद) का बहु-यह पटह का शब्द है, यह भेरी का शब्द है, कालमान है -संख्येय काल (संख्यातवर्षजीवी की अपेक्षा) यह शंख का शब्द है-इत्यादि विभिन्न वाद्यों के नाना और असंख्येय काल (पल्योपम आदि असंख्यात वर्ष प्रकार के शब्दों को एक साथ ग्रहण करना। आयुष्य वाले जीवों की अपेक्षा)।
बहविध-शंख, भेरी आदि के एक-एक शब्द के अठाईस प्रकार
स्निग्धत्व, मधुरत्व आदि अनेक धर्मों को एक साथ ग्रहण
करना। . सोइंदियाइभेएण छव्विहावग्गहादओऽभिहिआ ।
क्षिप्र-शीघ्र ग्रहण करना। ते होंति चउव्वीसं चउम्विहं वंजणोग्गहणं ।।
अनिश्रित-हेतु का सहारा लिए बिना स्वरूप को अट्ठावीसइभेयं एवं सुयनिस्सियं समासेणं... ।
जान लेना। (विभा ३००, ३०१)
निश्चित-असंदिग्ध रूप में जानना। अवग्रह (अर्थावग्रह). ईहा, अवाय और धारणा के
ध्रव-जैसे पहले बहु-बहुविध आदि का ज्ञान किया, छह-छह (पांच इन्द्रियां और मन) भेद हैं । व्यञ्जनावग्रह
वैसे सर्वदा जानना । यह कादाचित्क नहीं होता। के (चक्षु और मन को छोड़कर) चार भेद हैं। इस प्रकार श्रुतनिश्रित मति के अठाईस भेद होते हैं -
मेव क्यों ? व्यंजनावग्रह -श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय,
एवं बज्झन्भंतरनिमित्तवइचित्तओ मइबहत्तं । स्पर्शनेन्द्रिय।
किंचिम्मेत्तविसेसेण भिज्जमाणं पूणोऽणतं ।। अर्थावग्रह -श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, तत्र बाह्य निमित्तं मतिज्ञानस्य कारणमालोकरसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, मन ।
विषयादिकम् ।""आभ्यन्तरनिमित्तं पुनरावरणक्षयोपशमोईहा-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, पयोगोपकरणेन्द्रियाणि । (विभा ३११ मवृ पृ १५६)
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