________________
आत्मा
मन
५. आत्मा शरीरव्यापी
जो योग-परिणाम भिन्न-भिन्न अध्यवसायों से जोवो तणमेत्तत्थो जह कंभो तग्गुणोवलंभाओ। अंतरित (व्यवहित) होता है, वह है चित्त । अहवाऽणुवलंभाओ भिन्नम्मि घडे पडस्सेव ॥
चित्तं तिकाल विसयं........ ॥ (दभा १९) (विभा १५८६)
जो अतीत, अनागत और वार्तमानिक विषयों का आत्मा शरीर-प्रमाण है, वह अपने गुणों से शरीर में ग्राहक है, वह चित्त है। उपलब्ध होता है। जैसे घट अपने गुणों से घट में उप
....."जं चलं तयं चित्तं "। (आवहाव २ पृ६२) लब्ध होता है।
जो अस्थिर अध्यवसाय है, वह चित्त है। जैसे भिन्न स्वरूप वाले घट में पट का अभाव है,
जं होज्ज भावणा वा अण पेहा वा अहव चिता ।। वैसे ही शरीर के बाहर आत्मा की अनुपलब्धि है।
(आवहाव २ पृ६२)
चित्त के तीन रूपतम्हा कत्ता भोत्ता बंधो मोक्खो सुहं च दुक्खं च । संसरणं च बहुत्तासव्वगयत्ते सुजुत्ताई।।
१. भावना ध्यान के योग्य चेतना का निर्माण, (विभा १५८७)
ध्यानाभ्यास की क्रिया । जीव में कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बन्ध, मोक्ष, सुख, दुःख
२. अनुप्रेक्षा -- ध्यान के उत्तर काल में होने वाली एवं संसरण--ये सब युक्तिसंगत तभी होते हैं, जब आत्मा
चित्त की चेष्टा। को अनेक और असर्वगत शरीरव्यापी माना जाए ।
३. चिन्ता --चिन्तन, मानसिक चेष्टा । ............"देहव्वावी मओऽग्गिउण्हं व।
२. मन जीवो न उ सव्वगओ देहे लिंगोवलंभाओ ।।
मण्णं व मन्नए वाऽणण मणो तेण दव्वओ तं च ।
(दभा ५१) तज्जोग्गपोग्गलमयं भावमणो भण्णए मंता ।। जैसे अग्नि का लिंग उष्णता अग्नि में ही होता है,
(विभा ३५२५) वैसे ही आत्मा के लिंग सुख आदि शरीर में ही उपलब्ध जिससे मनन किया जाता है वह मन है। मनोयोग्य होते हैं, अत: आत्मा शरीरव्यापी है, सर्वव्यापी नहीं है। मनोवर्गणा से गृहीत अनन्त पुदगलों से निर्मित मन द्रव्य६. आत्मा के विविध स्तर
मन है। द्रव्यमन के सहारे जो चिन्तन किया जाता है
वह भावमन-- आत्मा है। १. चित्त
मणदव्वाणि जाणि मणपाउग्गाणि दव्वाणि गहियाणि णिच्छयणयाभिप्पाएण चित्त इत्यात्मा । अहवा न ताव मणेति ताणि मणदव्वाणि भण्णंति । जाहे य मतिसूतणाणभावे चित्तं । अहवा आवस्सयकरणकाले चेव मनिताणि भवंति ताहे मणो भण्णति । अण्णोण्णसूत्तत्थकिरियालोयणं चित्तं । तदेव मनोद्रव्योप
(आवचू १ पृ ५०,५१) रंजितं मनः । तदेव चित्तं द्रव्यलेश्योपरंजितं लेश्या।
ग्रहण किए हए मन के प्रायोग्य द्रव्य मनन से पूर्व
(अनुचू पृ १३, १४) मनोद्रव्य कहलाते हैं। मननकाल में उनकी संज्ञा है मन । ० निश्चय नय के अनुसार चित्त आत्मा है ।
मनः द्विधा--द्रव्यरूपं भावरूपं च । ० मतिज्ञान और श्रुतज्ञान से संपन्न आत्मा चित्त है। " मनःपर्याप्तिनामकर्मोदयतो यत् मनःप्रायोग्यवर्गणा० जो आवश्यक करने के समय सूत्र, अर्थ और क्रिया दलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमितं तदद्रव्यरूपं मनः । के परस्पर संबंध का आलोचन करता है, वह चित्त द्रव्यमनोऽवष्टम्भेन जीवस्य यो मननपरिणामः स भावमनः ।
(नन्दीमत् प १७४) ० मनोवर्गणा के पूदगलों से उपरंजित चित्त ही मन है। मन के दो प्रकार हैं-द्रव्यमन, भावमन । । ० द्रव्यलेश्या के पुद्गलों से उपरंजित चित्त का नाम है मनःपर्याप्तिनामकर्म के उदय से मन के प्रायोग्य - लेश्या ।
वर्गणाओं को ग्रहण कर जो मनरूप में परिणत होने वाला जो पुण जोगपरिणामो अण्णोण्णेहिं अज्झवसाणेहिं द्रव्य है, वह द्रव्यमन है । द्रव्यमन के सहारे जीव का जो अंतरितो सो चित्तं ।
(आवचू २ पृ ६९) मनन-परिणाम है, वह भावमन है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org