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आनुगामिक
आत्मा
........"मणस्स न विसयपमाणं ।।
से प्रवृत्त होता है, जैसे--विज्ञान विषयभूत पदार्थ के पोग्गलमित्तनिबंधाभावाओ केवलस्सेव ॥
आलंबन से प्रवृत्त होता है । इसलिए मोक्षार्थी को शुभ
(विभा ३५०) बाह्य आलंबन से प्रवृत्त होना चाहिये। मन का विषय प्रतिनियत नहीं है वह दूर-निकट,
४. अध्यवसाय सर्वत्र प्रवृत्त होता रहता है। केवल पुद्गल ही मन का
सामान्यतो द्रव्यलेश्योपरञ्जितं चित्तमध्यवसायविषय नहीं है। केवलज्ञान की तरह मूर्त-अमूर्त सब
स्थानमुच्यते, तच्चानवस्थितं, तत्तल्लेश्याद्रव्यसाचिव्ये पदार्थ मन के विषय बनते हैं ।
विशेषसम्भवात् ।
(नन्दीमत् प ९०) केवली के द्रव्यमन
सामान्यतः द्रव्यलेश्या से उपरंजित चित्त को अध्यद्रव्यमनोऽन्तरेण भावमनसोऽसम्भवात्, भावमनो वसायस्थान कहा जाता है। अध्यवसायस्थान अनवस्थित विनापि च द्रव्यमनो भवति, यथा भवस्थकेवलिनः। हैं. नाना प्रकार के लेश्या द्रव्यों के संयोग से वे बदलते
(नन्दीमत् प १७४) रहते हैं। द्रव्यमन के बिना भावमन नहीं होता । किन्तु भाव
७. आत्मजय : परमजय मन के बिना भी द्रव्यमन हो सकता है । जैसे-भवस्थ केवली के द्रव्यमन होता है, भावमन नहीं ।
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे ।
एग जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ। एकेन्द्रिय में अव्यक्त मन
अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ। असंज्ञी.."स हि स्वल्पस्वल्पतरमनोलब्धिसम्पन्नत्वाद
अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥ स्फूटमस्फूटतरमथं जानाति । तथाहि-संज्ञिपञ्चेन्द्रिया
पंचिंदियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च । पेक्षया सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रियोऽस्फुटमर्थं जानाति, ततोऽप्य- दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वं अप्पे जिए जियं ।। स्फुटं चतुरिन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतरं त्रीन्द्रियः, ततोऽप्य
(उ ९।३४-३६) स्फुटतमं द्वीन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतममेकेन्द्रियः, तस्य प्रायो जो पुरुष दुर्जय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को मनोद्रव्यासम्भवात्, केवलमव्यक्तमेव किञ्चिदतीवाल्पतरं जीतता है, उसकी अपेक्षा वह एक अपने आपको जीतता मनो द्रष्टव्यं, यद्वशादाहारादिसंज्ञा अव्यक्तरूपा है, यह उसकी परम विजय है। प्रादुष्षन्ति ।
(नन्दीमवृ प १९०) आत्मा के साथ ही युद्ध कर, बाहरी युद्ध से तुझे ___स्वल्प, स्वल्पतर मनोलब्धि-मानसिक विकास होने क्या लाभ ? आत्मा को आत्मा के द्वारा ही जीतकर के कारण असंज्ञी (सम्भूच्छिम पंचेन्द्रिय आदि) जीव अर्थ मनुष्य सुख पाता है। को अस्फुट, अस्फुटतर जानता है।
पांच इन्द्रियां, क्रोध, मान, माया, लोभ और मनसमनस्क पञ्चेन्द्रिय की अपेक्षा अमनस्क पञ्चेन्द्रिय ये दुर्जेय हैं। एक आत्मा को जीत लेने पर ये सब जीत अर्थ को अस्फूट जानता है, उससे भी अस्फुट चतुरिन्द्रिय, लिए जाते हैं। उससे अस्फुटतर त्रीन्द्रिय, उससे अस्फुटतम द्वीन्द्रिय, उससे
आत्मांगुल-अपना अंगुल । अपने हाथ का अस्फुटतम एकेन्द्रिय जानता है। एकेन्द्रिय जीव के मनो
चौबीसवां भाग। (द्र. अंगुल) द्रव्य प्रायः असंभव है। उसके केवल अव्यक्त अत्यन्त अल्पतर मन होता है। उससे एकेन्द्रिय में आहार आदि आत्यतिकमरण-मरण का एक प्रकार । (द्र. मरण) संज्ञाएं अव्यक्तरूप में उत्पन्न होती हैं।
आदान निक्षेप सावधानीपूर्वक वस्त्र-पात्रों को ३. परिणाम
लेना-रखना । समिति का चौथा परिणामो बझालंबणो सया चेव चित्तधम्मो त्ति।
____ प्रकार। (द्र. समिति) विण्णाणं पिव, तम्हा सुहबज्झालंबणपयत्तो॥ आनुगामिक-अवधिज्ञान का एक प्रकार जो
(विभा ३२८६)
स्वामी का अनुगमन करता है। - परिणाम चित्त का धर्म है । वह सदा बाह्य आलंबन
(द्र. अवधिज्ञान)
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