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अन्यता
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आत्मा
क्षणस्थायी मानने से बंध और मोक्ष घटित नहीं रूप, रस आदि इन्द्रिय-विषय आत्मा के गुण नहीं हैं होते।
क्योंकि आत्मा अमूर्त है। छद्मस्थ व्यक्ति चर्म चक्षुओं से ४. विरुद्ध पदार्थ का अप्रादुर्भाव -जैसे पट का विनाश अमूर्त आत्मा को नहीं जान सकता। सर्वदर्शी सिद्ध
का प्रादुर्भाव होता है, वैसे आत्मद्रव्य और केवली ही आत्मा को साक्षात जानते-देखते हैं। का विनाश होने पर किसी विरुद्ध द्रव्य का प्रादुर्भाव नो इंदियग्गेज्म अमुत्तभावा नहीं होता, इसलिए आत्मा नित्य है।
अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो।... (उ १४/१९) ५. अविनाश-जैसे आकाश का विनाश नहीं होता, जो अमूर्त हैं, वे इन्द्रियग्राह्य नहीं होते। आत्मा वैसे ही आत्मा का विनाश नहीं होता।
अमूर्त है। जो अमूर्त हैं, वे नित्य होते हैं। आत्मा नित्य ६. निरामय-सामय-आत्मा को नित्य मानने पर ही है। रोग और निरोगता संभव है।
संपयममुत्तद रं अइंदियत्ता अछेयभेयत्ता। ७. अनुसंस्मरण --आत्मा नित्य है इसलिए वह पूर्व रूवाइविरहओ वा अणाइपरिणामभावाओ । ___ अनुभूत का स्मरण कर सकता है।
(दभा ४०) ८. उपस्थान - आत्मा नित्य है, इसलिए शुभ-अशुभ
आत्मा अमूर्त है, अतः वह द्रव्य-इन्द्रिय से ग्राह्य __कर्म और विभुता-दीनता का भोक्ता है।
नहीं है और खड्ग, शूल आदि द्वारा उसका छेदन-भेदन ९. इन्द्रियों से अग्राह्य --- आत्मा अमूर्त है अतः वह संभव नहीं है। उसकी अमूर्तता अनादि-परिणाम-भाव
इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है। १०. जातिस्मरण -आत्मा नित्य है, अत: वह पूर्वजन्मों अन्यता का स्मरण कर सकता है।
नाणादओ न देहस्स मुत्तिमत्ताइओ घडस्सेव । ११. स्तनाभिलाषा-जन्मते ही बच्चे को स्तनपान करने
तम्हा नाणाइगुणा जस्स स देहाहिओ जीवो ॥ ___ की इच्छा होती है । यह इच्छा पूर्वप्रेरित है।
(विभा १५६२) १२. सर्वज्ञ-उपदिष्ट -जीव नित्य है-ऐसा सर्वज्ञ द्वारा
ज्ञान आदि देह के गुण नहीं हैं, क्योंकि देह घट की उपदिष्ट है । सर्वज्ञ मिथ्या उपदेश नहीं देते ।
तरह मूत्तिमान है। इसलिए ज्ञान आदि जिसके गुण हैं, १३. स्वकर्मफल का भोग-आत्मा नित्य है क्योंकि वह
वह देह से अतिरिक्त आत्मा ही है। स्वकृत कर्मों का भोग करता है।
""अन्नो देहा गिहाउ पुरिसो व्व । (दअचू पृ ६९, ७०)
तज्जीवतस्तरीरियमयघायत्थं इमं भणियं ।। नित्यता संसाराओ आलोयणाउ तह पच्चभिन्नभावाओ ।
(दभा ३७)
तज्जीवतच्छरीरवादियों का अभिमत है-जो आत्मा खणभंगविघायत्थं भणि तेलोक्कदंसीहिं॥
है, वही शरीर है। अर्हत-दर्शन के अनुसार आत्मा (दभा ४३)
देह से अन्य है। जैसे---घर में रहने वाला पुरुष घर से आत्मा क्षणभंगुर नहीं है। वह परिणामीनित्य है, इसके तीन हेतु हैं
अन्य है। १. संसरण -नारक, तिर्यंच आदि के रूप में संसरण ।
देहिंदियाइरित्तो आया खलु तदुवलद्धअत्थाणं । २. आलोचन-त्रिकाल सम्बन्धी आलोचन --मैंने किया, तविगमेऽवि सरणओ गेहगवखेहि पूरिसोव्व ।। - मैं करता हूं, मैं करूंगा।
(दभा ३८) ३. प्रत्यभिज्ञान-यह वही है अथवा मैं वही हं- इस जैसे गवाक्ष से देखे गये पदार्थ का स्मरण करने रूप में अभेद का ग्रहण ।
वाला पुरुष होता है, वैसे ही इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध अर्थ अमूर्तता
का इन्द्रियों के न होने पर भी स्मरण होता है । (अंधाअणिदियगुणं जीवं, दुन्नेयं मंसचक्खुणा।
बहरा व्यक्ति पूर्व अनुभूत रूप आदि का स्मरण करता सिद्धा पासंति सम्वन्नू, नाणसिद्धा य साहुणो ॥ है।) जो स्मरण करता है, वह आत्मा है और वह शरीर
(दभा ३४) तथा इंद्रियों से अन्य है।
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