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आगम वाचना
ऊणतरेणं कालेणं पढिहिसि
एतो बच्चे ज्जासि ।
मा विसादं
समते महापाणे कर पढियाणि णव पडिपुण्णाणि, दसमकं च दोहिं वत्थूहिं ऊणकं । एतंमि अंतरे विहरंता आगता पाडलिपुत्तं । थूलभद्दस्स य ताओ भगिणीओ सत्तवि पव्वइतिकाओ भांति - आयरिका ! भाउक वंदका वच्चामो, उज्जाणे किर ठितेल्लका । आयरिए वंदित्ता पुच्छंति - कहिं जेट्टभाते ? भणति - एताए देवकुलिका गुणति । तेण य चितितं - भगिणी इड्ढि दरिसेमित्ति सीहरूवं विउव्वितं, ताओ सीहं पेच्छति । ता व भीता नट्ठाओ, भांति - सीहेण खइयो । आयरिएणं भणितं - ण सो सीहो, थूलभद्दो ।
बितिय दिवसे उद्देसणकालो उवट्ठितो । न उद्दिसंति । किं कारणं ? अजोगो । तेण जाणितं कल्लत्तणकं । भणति - ण काहामि । भणति - ण तुमं काहिसि, अण्णे काहिति । पच्छा महता किलेसेण पडिवण्णा । उवरिल्लाणि चत्तारि पुव्वाणि पढाहि, मा अण्णस्स देज्जासि । ते चत्तारि ततो वोच्छिण्णा, दसमस्स य दो पच्छिमाणि वत्थूणि वोच्छिणाणि । दस पुव्वाणि अणुसज्जंति ।
( आवचू २ पृ १८७, १८८ ) वीरनिर्वाण की दूसरी शताब्दी में बारह वर्ष का दुर्भिक्ष हुआ । साधु-संघ समुद्र के किनारे चला गया । सुभिक्ष होने पर पाटलिपुत्र में पुनः मिला । दुर्भिक्ष के समय अनेक श्रुतधर मुनि स्वर्गवासी हो गए। जो शेष बचे, उनमें से किसी को श्रुत का उद्देशक याद रहा, किसी को उसका एक अंश । संघ के अग्रणी मुनियों ने उन सबको व्यवस्थित रूप में संकलित किया। इस प्रकार ग्यारह अंग संकलित हो गए । दृष्टिवाद को जानने वाला कोई मुनि नहीं बचा ।
उस समय आचार्य भद्रबाहु नेपाल देश में थे । वे चतुर्दशपूर्वी थे। संघ ने परामर्श कर एक संघाटक (दो मुनि) वहां भेजा और कहलवाया आप यहां आकर दृष्टिवाद की वाचना दें। उन मुनियों ने वहां जाकर उनके सामने संघ का आवेदन प्रस्तुत किया ।
भद्रबाहु ने कहा---' पहले दुष्काल था, इसलिए मैं महाप्राण की साधना में प्रविष्ट नहीं हुआ। अब मैं उसकी साधना प्रारंभ की है, अतः मैं वाचना देने के लिए आने में असमर्थ हूं ।'
मुनियों ने लौटकर सारा वृत्त संघ को बतलाया ।
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आगम
संघ ने दूसरा संघाटक भेजकर कहलवाया - महामुने ! जो संघ की आज्ञा का अतिक्रमण करता है, उसके लिए कौन-सा दंड है ? आचार्य भद्रबाहु ने कहा - 'संघ की आज्ञा के अतिक्रमण का अर्थ होता है-संघ से बहिष्कार | संघ मुझे बहिष्कृत न करे, इसलिए कुछ मेधावी साधुओं को भेजो। मैं प्रतिदिन सात वाचनाएं दूंगा -
१. भिक्षाचरी से आने के बाद
२. स्वाध्याय के समय
३. शौच से आने के बाद
४. विकाल वेला में
५-७. आवश्यक के बाद प्रतिपृच्छा के लिए तीन ।' संघ ने संघाटक से यह संवाद पाकर स्थूलभद्र आदि पांच सौ मेधावी मुनियों को वहां भेजा। उन्होंने वाचना प्रारंभ की। प्रायः सभी मुनि न पढ़ सकने के कारण एक, दो, तीन महीनों में पाटलिपुत्र लौट गए। उन्होंने कहा - 'हम प्रतिपृच्छक से पढ़ नहीं सकते।' केवल स्थूलभद्रस्वामी दृढ़ता से अध्ययन में संलग्न रहे ।
महाप्राण ध्यान की साधना थोड़ी शेष रही, तब भद्रबाहु ने स्थूलभद्र से पूछा- 'तुम खिन्न तो नहीं हो रहे हो ?'
स्थूलभद्र बोले - 'मैं खिन्न नहीं हो रहा हूं ।' तब भद्रबाहु ने कहा – 'कुछ दिन प्रतीक्षा करो, फिर मैं तुम्हें पूरे दिन वाचना दूंगा।' स्थूलभद्र ने पूछा- 'मैंने कितना पढ़ा है, कितना शेष रहा है ?" भद्रबाहु बोले'तुमने अभी ८८ सूत्र ही पढ़े हैं। सरसों जितना पढ़े हो, मंदर पर्वत जितना पढ़ना शेष है। किंतु विषाद मत करो। जितना समय लगा है, उससे कम समय में तुम पढ़ लोगे । '
महाप्राण ध्यान संपन्न हो गया । स्थूलभद्र ने प्रतिपूर्ण नौ पूर्व पढ़ लिए। दो वस्तुओं ( विभागों) से न्यून दसवां पूर्व भी पढ़ लिया । भद्रबाहु और स्थूलभद्र नेपाल से प्रस्थान कर पाटलिपुत्र आ गए। स्थूलभद्र की सात बहिनें प्रव्रजित हुई थीं । वे आचार्य भद्रबाहु और अपने भाई स्थूलभद्र को वंदन करने गई । आचार्य भद्रबाहु उद्यान में ठहरे हुए थे। उन्होंने वंदन कर पूछा - 'भंते ! हमारा ज्येष्ठ भ्राता कहां है ? ' भद्रबाहु ने कहा 'इसी देवकुल में परावर्तन - स्वाध्याय कर रहा है ।' बहिनें स्थूलभद्र को वंदना करने गईं । स्थूलभद्र ने आती हुई
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