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मति-श्रतज्ञान और अवधिज्ञान में साधर्म्य
अवधिज्ञान
चार गव्यूत (एक योजन) क्षेत्रवर्ती पदार्थों को जानते सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य जब देव और नरक
गति में उत्पन्न होते हैं, तब उनका वधिज्ञान प्रतिपद्यसात पृथ्वियां जघन्य अवधि-क्षेत्र उत्कृष्ट अवधि-क्षेत्र मान (नये सिरे से प्राप्त) होता है। अनाहारक और रत्नप्रभा साढे तीन गव्यूत चार गव्यूत अपर्याप्त अवस्था मे अवधिज्ञान मतिज्ञान की भांति पूर्वशर्कराप्रभा तीन गव्यूत साढे तीन गव्यूत प्रतिपन्न हो सकता है। विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय बालुकाप्रभा ढाई गव्यूत तीन गव्यूत इस नियम के अपवाद हैं क्योंकि इनका मतिज्ञान पूर्वपंकप्रभा दो गव्यूत ढाई गव्यूत प्रतिपन्न है किन्तु अवधिज्ञान न पूर्व प्रतिपन्न है और न धूमप्रभा डेढ़ गव्यूत दो गव्यूत
प्रतिपद्यमान है। तमःप्रभा एक गव्यूत
डेढ गव्यूत
२३. अवधिज्ञान के प्राप्ति-स्थान महातमःप्रभा अर्ध गव्यूत एक गव्यूत
जे पडिवज्जति मई तेऽवहिनाणं पि समहिआ अण्णे । २०. तिथंच का उत्कृष्ट-जघन्य अवधि
वेय-कसायाईया मणपज्जवनाणिणो चेव ॥ ओरालिय-वेउब्विय-आहारग-तेयगाइं तिरिएसु ।
(विभा ७७७) उक्कोसेणं पेच्छइ जाइं च तदंतरालेसु ॥
जो मतिज्ञान का प्रतिपत्ता (प्राप्त करने वाला) है,
(विभा ६९१) वही अवधिज्ञान का प्रतिपत्ता है। अवधिज्ञान के लिए तिरिक्खजोणिया जहण्णेण ओहिणा ओरालियं कुछ अतिरिक्त स्थान हैं औपशमिक और क्षायिकश्रेणी सरीरं जाणिज्जा ।....."कम्मगसरीरं पुण ण चेव जाणंति की अवस्था में अवेदक और अकषायी को अवधिज्ञान ण वा पासंति ।
(आवच १ पृ ५२) प्राप्त होता है ये मतिज्ञान से अतिरिक्त स्थान हैं। तियंचयोनिक जीव अवधिज्ञान से उत्कृष्टतः जिन्हें मनःपर्यवज्ञान पहले प्राप्त हो जाता है, उन्हें अवधिओदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस द्रव्यों तथा उनके ज्ञान बाद में प्राप्त होता है। इस प्रकार मतिज्ञान से अन्तरालवर्ती द्रव्यों को जानते हैं तथा जघन्यतः औदारिक अवधिज्ञान के तीन स्थान अधिक हैंशरीर को जानते हैं। किन्तु कर्म शरीर को न जानते हैं, १. अवेदक, २. अकषायी, ३. मनःपर्यव के न देखते हैं।
पश्चात् । २१. अवधिज्ञान और देश विरति सामायिक २४. अवधिज्ञान के पश्चात् अवधिदर्शन
श्रावकोऽप्यवधिज्ञानं प्राप्य देशविरति प्रतिपद्यत सर्वा लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्योत्पद्यन्ते । इत्येवं न। किन्तु पूर्वमभ्यस्तदेशविरतिगुणः पश्चादवधि अवधिरपि लब्धिरुपवर्ण्यते। ततः स प्रथममुत्पद्यमानो प्रतिपद्यते, देशविरत्यादिगुणप्राप्तिपूर्वकत्वादवधिज्ञान- ज्ञानरूप एवोत्पद्यते न दर्शनरूपः। ततः क्रमेणोपयोगप्रतिपत्तेरित्येतावद् गुरुभ्योऽस्माभिरवगतम् । तत्त्वं तु प्रवृत्तेर्ज्ञानोपयोगानन्तरं दर्शनरूपोऽपीति प्रथमतो ज्ञानकेवलिनो विदन्ति । (विभा २ मव' पृ १५८) मुक्तं पश्चाद्दर्शनम् ।
(नन्दीमत् प ९७, ९८) श्रावक अवधिज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् देशविरति सारी लब्धियां साकार उपयोग की अवस्था में ही को प्राप्त नहीं करता । देशविरति आदि गुणों के अभ्यास उत्पन्न होती हैं। अवधि भी एक लब्धि है, इसलिए के पश्चात् ही अवधिज्ञान प्राप्त होता है-यह तथ्य हमें पहले ज्ञानरूप में ही उत्पन्न होती है। उपयोग की गुरु-परम्परा से ज्ञात हुआ है। इसका रहस्य तो केवली प्रवृत्ति का क्रम होता है-पहले ज्ञान-उपयोग और जानते हैं।
पश्चात् दर्शन-उपयोग होता है, इसलिए पहले ज्ञान और
पश्चात दर्शन प्रतिपादित है। २२. अवधिज्ञान की पूर्वप्रतिपन्नता
सम्मा सुर-नेरइयाऽणाहारा जे य होंतपज्जत्ता। २५. मतिश्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में साधयं ते च्चिय पुव्वपवण्णा वियलाऽसण्णी य मोतूणं ॥
काल-विवज्जय-सामित्त-लाभसाहम्मओऽवही तत्तो। (विभा ७७८)
(विभा ८७)
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