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अवधिज्ञान
नारक जीवों का अवधिज्ञान
प्राणत कल्पवासी देव पांचवीं (धूमप्रभा) पृथ्वी को देखते सागारमणागारा ओहि-विभंगा जहण्णया तुल्ला । हैं। अधस्तन व मध्यम प्रैवेयक विमानवासी देव छठी (तमः- उवरिमगेवेज्जेसू परेण ओही असंखेज्जो । प्रभा) पृथ्वी को तथा उपरितन ग्रैवेयक विमानवासी देव
(विभा ७६३) सातवीं (तमस्तमःप्रभा) पृथ्वी को देखते हैं। अनुत्तर- ग्रैवेयकविमानेभ्यः तु परतोऽनुत्तरविमानेष्वधिज्ञानाविमानवासी देव अवधिज्ञान से सम्पूर्ण लोकनाड़ी को वधिदर्शनरूपोऽवधिरेव भवति, न तु विभंगज्ञानम्, मिथ्यादेखते हैं।
दृष्टेरेव तत्सद्भावात्, अनुत्तरसुरेषु च मिथ्यादृष्टेरभाजो जं पुढवि देवो ओहिणा जाणति पासति, सो तीए वात् । स चाऽनुत्तरसुरावधिः क्षेत्रतः कालतश्चाऽसंख्येपूढवीए सकातो सरीराओ आरब्भ जाव हिद्विल्लो चरि- योऽसंख्यातविषयो भवति, द्रव्यभावस्त्वनन्तविषय इति । मंतो ताव णिरंतरं संभिण्णं पव्वयकुड्डादीहिं णिरावरणं इह च तिर्यग्-मनुष्याणां तुल्यस्थितीनामपि क्षयोपशमओहिणा जाणति पासति। (आवचू १ पृ ५४) तीव्रमन्दतादिकारणवैचित्र्यात् क्षेत्रकालविषयेऽप्यवधि
जो देवता जिस पृथ्वी को अवधिज्ञान से जानता- विभङ्गज्ञानदर्शनयोविचित्रता, न पुनस्तुल्यतैव। . देखता है, वह अपने शरीर से प्रारम्भ कर उस पृथ्वी के
(विभामवृ पृ ३१६, ३१७) अधस्तलवर्ती चरमान्त तक जानता-देखता है। उसका भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक (वेयक ज्ञान निरन्तर परिपूर्ण होता है तथा उसमें पर्वत, भीत पर्यंत) देव- इनमें जिनकी स्थिति (आयु) तुल्य होती है, आदि का व्यवधान नहीं होता।
उनका अवधिज्ञान-अवधिदर्शन अथवा विभंगज्ञान-विभंगएएसिमसंखिज्जा, तिरियं दीवा य सागरा चेव । दर्शन विषय, क्षेत्र आदि की अपेक्षा से तुल्य होता हैबहुअअरं उवरिमगा, उड्ढं सगकप्पथूभाई॥ जघन्य स्थिति वाले देवों का अवधिज्ञान जघन्य, मध्यम
(आवनि ५१) स्थिति वाले देवों का मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति वाले वैमानिक देव अवधिज्ञान से तिर्यग्लोक के असंख्येय देवों का उत्कृष्ट होता है। द्वीपों और समुद्रों को देख लेते हैं। ये देव ऊर्ध्वलोक में ग्रंवेयक विमानों से आगे पांच अनुत्तरविमानों में अपने कल्प के ही स्तूपध्वजापर्यंत देखते हैं।
अवधिज्ञान ही होता है, विभंगज्ञान नहीं होता। विभंगदेवों का आयुष्य और अवधिक्षेत्र
ज्ञान मिथ्यादृष्टि के ही होता है। अनुत्तर विमानों के देव
सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। अनुत्तरविमानवासी देव अवधिसंखेज्जजोयणा खलु, देवाणं अद्धसागरे ऊणे । तेण परमसंखेज्जा, जहण्णयं पंचवीसं तु ॥
ज्ञान से असंख्येय क्षेत्र और काल को जानते हैं, अनन्त (आवनि ५२)
द्रव्यों और पर्यायों को जानते हैं।
तुल्य स्थिति वाले पंचेन्द्रिय और मनुष्यों का अवधिपणवीसजोयणाई दसवाससहस्सिया ठिई जेसि ।
ज्ञान या विभंगज्ञान तुल्य नहीं होता। क्षयोपशम की विहो वि जोइसाणं संखिज्ज ठिईविसेसेणं ।।
तीव्रता, मन्दता आदि कारणों की विचित्रता से उनका (विभा ७०१)
अवधिज्ञान या विभंगज्ञान भी विविध प्रकार का होता है। जिन देवों का आयुष्य अर्ध सागरोपम से कुछ कम
नारक जीवों का अवधिज्ञान होता है, उनके अवधिज्ञान का क्षेत्र संख्येय योजन परिमाण है। जिन देवों का आयुष्य पूर्ण अर्ध सागरोपम
..."भवपच्चइओ स चरिमपुढवीए । और उससे अधिक होता है, उनके अवधिज्ञान का क्षेत्र गाउयमुक्कोसेणं पढमाए जोयणं होइ ।। असंख्येय योजन परिमाण है। दस हजार वर्षों की जघन्य चत्तारि गाउयाइं, अद्धदाइं तिगाउयं चेव । स्थिति वाले भवनपति और व्यंतर देवों के अवधिज्ञान अड्ढाइज्जा, दोण्णि य दिवढमेगं च नरएसु ॥ का जघन्य क्षेत्र पच्चीस योजन परिमाण है।
अद्भुटुंगाउयाई जहण्णयं अद्धगाउयंताई । ज्योतिष्क देवों का जघन्य और उत्कृष्ट अवधिक्षेत्र जं गाउयं ति भणियं तं पइ उक्कोसयजहण्णं ॥ संख्येय योजन ही होता है। (क्योंकि उनका जघन्य
(विभा ६९२-६९४) आयुष्य पल्योपम का आठवां भाग तथा उत्कृष्ट आयुष्य सात पृथ्वियों के नारक जीव अपने भवप्रत्ययिक एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम का होता है।) अवधिज्ञान से जघन्य आधा गव्यूत (कोस) तथा उत्कृष्ट
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