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वैमानिक देवों का अवधिक्षेत्र
क्षेत्र के आधार पर मध्यम अवधिज्ञान अनेक प्रकार के संस्थान वाला होता है। जैसे तप्राकार संस्थान - संस्थित क्षेत्र की अपेक्षा से वह तप्राकार संस्थान वाला होता है । अश्व संस्थान - संस्थित क्षेत्र की अपेक्षा अश्व के संस्थान वाला होता है । पर्वत संस्थान - संस्थित क्षेत्र की अपेक्षा अवधिज्ञान का संस्थान पर्वत जैसा होता है ।
विशेष - नंदी में अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र तीन समय का आहारक सूक्ष्म पनक जीव बतलाया गया है । आवश्यकनिर्युक्ति में जघन्य अवधिज्ञान का संस्थान जलबिन्दु बतलाया गया है । अवधिज्ञान का क्षेत्रपरिमाण और संस्थान का अंतर विमर्शनीय है । इस अन्तर का हेतु है - क्षेत्र परिमाण ज्ञेय की दृष्टि से बतलाया गया है । संस्थान ज्ञान के आकार की दृष्टि से बतलाया गया है ।
आवश्यक निर्युक्ति के व्याख्याकारों ने अवधिज्ञान के संस्थानों को शरीरगत संस्थान नहीं माना । गोम्मटसार और धवला में उन्हें शरीरगत संस्थान माना गया है । शरीरगत संस्थान वाला मत अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है । अवधिज्ञान की रश्मियों का निर्गमन शरीर के माध्यम से होता है, ऐसा आवश्यकवृत्ति और नंदीचूर्णि में स्पष्ट उल्लेख मिलता है । श्वेताम्बर आचार्यों ने अवधिज्ञान की प्रकाशरश्मियों के संस्थान का प्रतिपादन किया है, किंतु उनके संस्थान का आधार शरीरगत संस्थान बनते हैं, इसका उल्लेख नहीं किया है । भगवती ( ८1१०३ ) में विभंगज्ञान के संस्थानों का उल्लेख है । जैसे - वृषभ का संस्थान, हय का संस्थान, गज का संस्थान आदि । (देखें - भगवती ८।९७-१०३ का भाष्य । ) १६. अवधिज्ञान और क्षेत्र मर्यादा
भवणवइ-वंतराणं उड्ढं बहुगो अहो य सेसाणं । नारग- जोइसियाणं तिरियं ओरालिओ चित्तो ॥ ( विभा ७१३ )
भवनपति और व्यंतर देवों का अवधिज्ञान ऊर्ध्व लोक को अधिक जानता है । वैमानिक देवों का अवधिज्ञान अधोलोक को अधिक जानता है । ज्योतिष्क और नारकी जीवों का अवधिज्ञान तिर्यग्लोक को अधिक जानता है । औदारिक अवधिज्ञान विविध प्रकार का होता है ।
तिर्यग् - मनुष्याणां तु सम्बन्धी अवधिरौदारिकावधि
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अवधिज्ञान
रुच्यते । अयं पुनश्चित्रो नानाप्रकारः अन्येषां त्वधः, अपरेषां तु तिर्यक्;
भावः ।
केषांचिदूर्ध्वं बहुः, केषांचित् स्वल्प इति ( विभामवृ पृ ३०१ ) तिर्यंच और मनुष्यों का अवधिज्ञान औदारिक अवधि कहलाता है । यह नाना प्रकार का होता है । किसी का यह अवधिज्ञान ऊर्ध्व लोक को अधिक जानता है, किसी का अधोलोक को और किसी का तिरछे लोक को । किसी का अवधिज्ञान स्वल्प होता है ।
वेमाणियाणमंगलभागमसंखं जहण्णओ होइ । उवाए परभविओ तब्भवजो होइ तो पच्छा ॥ उक्कोसोमणुए मणुस - तेरिच्छिएसु य जहण्णो । ''''
( विभा ७०२, ७०३) सौधर्म आदि वैमानिक देवों में जघन्य अवधिज्ञान अंगुल के असंख्य भाग जितना होता है- यह कथन पिछले भव की अपेक्षा से है । उपपातकाल में पारभविक अवधिज्ञान इतना हो सकता है। उपपात के अनन्तर तद्भविक — देवभवसंबंधी अवधिज्ञान होता है ।
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उत्कृष्ट अवधिज्ञान मनुष्यों में ही होता है, अन्य योनियों में नहीं होता । मनुष्यों और तिर्यञ्चों में ही जघन्य अवधिज्ञान होता है ।
जहणको सवज्जो मज्झिमओधी भण्णति । सो य उवि गती भवति । ( आवचू १ पृ ५५ ) जघन्य और उत्कृष्ट को छोड़कर शेष मध्यम अवधि कहलाता है । यह चारों गतियों में होता है । वैमानिक देवों का अवधिक्षेत्र
सक्कीसाणा पढमं दुच्चं च सणकुमारमाहिंदा । तच्चं च बंभलंतग, सुक्कसहस्सारय चउत्थि || आणपाणयकप्पे, देवा पासंति पंचमि पुढवि । तं चेव आरणच्चय, ओहीनाणेण पासंति ॥ छट्ठि हेट्ठिममज्झिमगे विज्जा सत्तमं च उवरिल्ला । संभिण्णलोगनालि पासंति अणत्तरा देवा ॥ ( आवनि ४८५ - ५० ) सौधर्म और ईशान कल्पवासी देव अवधिज्ञान से प्रथम ( रत्नप्रभा) पृथ्वी को देखते हैं । सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देव दूसरी (शर्कराप्रभा) पृथ्वी को देखते हैं । ब्रह्म और लान्तक कल्पवासी तीसरी (बालुकाप्रभा) पृथ्वी को देखते हैं। शुक्र और सहस्रार कल्पवासी देव चतुर्थ ( पंकप्रभा ) पृथ्वी को देखते हैं । आनत और
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