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अवधिज्ञान
भावओऽवि अवट्ठाणं जहणणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं सत्त समया । तिव्वयरेण उवओगेण दव्वस्स पज्जवोवलंभो भवति, अओ तिब्वोवओगेण य सुट्ठतरं निरोहमसह्णो न सक्केति तंमि पज्जए सत्तण्हं अट्ठण्हं वा समयाणं उवरि अच्छिउं । ( आवचू १ पृ ५८ ) भाव - पर्याय की अपेक्षा अवधिज्ञानी का उपयोग जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः सात-आठ समय तक अवस्थित रह सकता है । द्रव्य के पर्यायों का ज्ञान तीव्रतर उपयोग (गहरी एकाग्रता ) से होता है । वह अवधिज्ञान तीव्रतर उपयोग से होने वाले सघन निरोध को सहन नहीं कर सकता । अतः वह उस पर्याय पर सात-आठ समयों से अधिक अवस्थित नहीं रह सकता ।
जह-जह सुहुमं वत्युं तह तह थोवोवओगया होइ। Goa - गुण - पज्जवेसुं तह पत्तेयं पि नायव्वं ॥ ( विभा ७२३ ) जितनी - जितनी सूक्ष्म होती है, उपयोग का काल उतना उतना कम होता जाता | द्रव्य, गुण और पर्याय के लिए यह एक सामान्य नियम है ।
वस्तु
लब्धि की अपेक्षा अवस्थान
अद्धाइ अवद्वाणं, छावट्ठी सागरा उ कालेणं । उक्कोसगं तु एयं, इक्को समओ जहणेणं ॥ ( आवनि ५८ ) सा सागरोवमा छावट्ठि होज्ज साइरेगाई । विजयाइ दो वारे गयस्स नरजम्मणा समयं ॥ ( विभा ७२५) अवधिज्ञान का लब्धितः उत्कृष्ट अवस्थान कुछ अधिक छियासठ सागरोपम है। जो जीव उत्कृष्ट स्थिति वाले विजय आदि अनुत्तर विमानों में दो बार उत्पन्न होता है, उसकी अपेक्षा से अवधि की अवस्थिति छियासठ सागरोपम है । मनुष्य जन्म की स्थिति साथ मिलाने से यह सातिरेक है । इसका जघन्य अवस्थान एक समय है । चरिमसमयम्म सम्मं पडिवज्जंतस्स जं चिय विभंगं । तं होइ ओहिनाणं मयस्स बीयम्मि तं पडइ ॥ (विभा ७२७ ) जीवन के अन्तिम समय में सम्यक्त्व प्राप्त होने पर विभंगज्ञान अवधिज्ञान बन जाता है । तत्काल मृत्यु होने पर दूसरे समय में वह क्षीण हो जाता है ।
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मध्यम अवधि का संस्थान
१८. अवधिज्ञान के संस्थान
थिबुयायार जहण्णो वट्टो उक्कोसमायओ किंची ।''
( आवनि ५४ ) सव्वक्कोसओ ओही सो वट्टो वट्टभावो सो पुण लोगं प हुच्च किंचि आयतो भवति । ( आवचू १ पृ ५५ ) जघन्य अवधि का संस्थान जलबिन्दु के समान होता है । सर्वोत्कृष्ट अवधि का संस्थान लोक की अपेक्षा से कुछ दीर्घता लिए / आयत वृत्ताकार होता है ।
मध्यम अवधि का संस्थान
....अजहण्णमणुक्कोसो य खित्तओ णेगसंठाणो ॥ तप्पागारे पल्लग पडहग झल्लरि मुइंग पुप्फ जवे । ... नेरइय-भवण-वणयर- जोइस कप्पालयाणमोहिस्स । विज्जणुत्तराण य होता गिइओ जहासंखं ॥ ( आवनि ५४, ५५; विभा ७०७ )
मध्यम अवधि का संस्थान अनेक प्रकार का होता है । नारक जीवों का अवधिज्ञान तप्राकार होता है । भवनपति देवों का अवधि पल्लक ( धान्यकोष्ठक) के आकार वाला, व्यन्तर देवों का पटह के आकार वाला, ज्योतिष्क देवों का झल्लरी ( आतोद्यविशेष) के आकार वाला, सौधर्म आदि कल्पवासी देवों का मृदंग के आकार वाला, ग्रैवेयक देवों का पुष्पचंगेरी के आकार वाला तथा अनुत्तरविमानवासी देवों का अवधिज्ञान यवनालक ( कन्या चोलक / सरकंचुक) के आकार वाला होता है । नाणागारो तिरियमणुएसु मच्छा सयंभूरमणेव्व । तत्थ वलयं निसिद्धं तस्सिह पुण तं पि होज्जाहि ॥ ( विभा ७१२ )
स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्यों की भांति तिर्यंच और मनुष्यों का अवधिज्ञान नाना संस्थान वाला होता है । उन मत्स्यों में वलयाकार मत्स्य नहीं होते, किंतु तिर्यंच और मनुष्य के अवधिज्ञान का संस्थान वलयाकार भी होता है ।
मज्झिमओही सो खेत्तं पडुच्च अणेगविहसंठाणो भवति । तं जहा तप्पागारसंठाणसंठियं खेत्तं पडुच्च तप्पागारसंठितो भवति हयसंठाण-संठियं खेत्तं पडुच्च हयसंठिओ पव्वयसंठाणसंठिअं खेत्तं पडुच्च पव्वयसंठिओ भवति । ( आवचू १ पृ ५५ )
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