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________________ लेश्या - कोश ४१३ की अपेक्षा से कथन है अर्थात् रौद्रध्यान में उपगत जीव की अपेक्षा आर्त्तध्यान में उपगत जीव के लेश्या परिणाम कम संक्लिष्ट होते हैं । टीकाकार का कथन है कि लेश्या कर्मोदय परिणाम जनित है । • ६५६ धर्मध्यान * ६५१० शुक्लध्यान - धर्म और शुक्ल ध्यानों में वर्तता हुआ जीव किस-किस लेश्या में परिणमन करता है - इसके सम्बन्ध में पाठ उपलब्ध हुए हैं । ध्यान और लेश्या में अविना भावी सम्बन्ध है कि नहीं यह कहा नहीं जा सकता है लेकिन चौदहवें गुणस्थान में जब जीव अयोगी तथा अलेशी हो जाता है तब भी उसके शुक्ल ध्यान का चौथा भेद होता है । यहाँ लेश्या रहित होकर भी जीव के ध्यान का एक उपभेद रहता है । शुक्ल ध्यान में भी तेजो-पद्म- शुक्ल लेश्याएं हो सकती है । निव्वाणगमणकाले केवलिणोद्धनिरुद्धजोगस्स । सुहुम किरियाsनियर्हि तइयं तणुकायकिरियरस || तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्व निप्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई झाणं परमसुक्कं ॥ — ठाण० स्था ४ । उ १ । सू २४७ । टीका में उद्भुत निर्वाण के समय केवली के मन और वचन योगों का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है तथा काययोग का अर्ध निरोध होता है । उस समय उसके शुक्ल ध्यान का तीसरा भेद ' सुहुमकिरिए अनियट्टी' होता है और सूक्ष्म कायिकी क्रिया - उच्छ्वासादि के रूप में होती है । उस निर्वाणगामी जीव के शैलेशीत्व प्राप्त होने पर, सम्पूर्ण योग निरोध होने पर भी शुक्लध्यान का चौथा भेद 'समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाती' होता है, यद्यपि शैलेशत्व की स्थिति मात्र पांच ह्रस्व स्वराक्षर उच्चारण करने समय जितनी होती है । ध्यान का लेश्या के परिणमन पर क्या प्रभाव पड़ता है यह भी विचारणीय विषय है । क्या ध्यान के द्वारा लेश्या द्रव्यों का ग्रहण नियंत्रित या बंद किया जा सकता है ? ध्यान का लेश्या - परिणमन के साथ क्या सीधा संयोग है या योग के द्वारा ? इत्यादि अनेक प्रश्न विज्ञजनों के विचारने योग्य हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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