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लेश्या - कोश
[ से केण ेणं ? गोयमा ! दुविहा तेऊलेस्सा पण्णत्ता, तं जहासंजयाय असंजया य । तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पमत्त संजया य, अप्पमत्त संजया य । तत्थ णं जे ते अध्पमत्तसंजया ते णं नो आयारंभा जाव अणारंभा । तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुहं जोगं पडुच्च नो आयारंभा जाव अणारंभा । असुभं जोगं पडुच्च आयारंभा वि जाव नो अणारंभा ।
तत्थणं जे ते असंजया ते अविरतिं पडुच्च आयारंभा वि जाव नो अणारंभा । से तेण ेण जाव अणारंभा ।
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पद्मशुक्ललेश्यानां एष एव गमः ।
अर्थात् कई एक तेजोलेशी आत्मारम्भी भी है, यावत् अनारम्भी नहीं है । कई एक आत्मारम्भी भी है यावत् अनारम्भी नहीं है, कितनेक आत्मारम्भी नहीं है यावत् अनारम्भी है ।
तेजोलेशी जीव दो प्रकार के हैं- संयत और असंयत । उनमें संयत जीव दो प्रकार के हैं--प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत । जो अप्रमत्त संयत हैं वे आत्मारम्भी नहीं है, परारम्भी नहीं है, तदुभयारम्भी नहीं है, अनारम्भी है ।
जो प्रमत्त संयत हैं वे शुभयोग की अपेक्षा आत्मारम्भी नहीं है यावत् तदुभयारम्भी नहीं है, अनारम्भी है । अशुभयोग की अपेक्षा आत्मारम्भी भी है यावत् तदुभयारम्भी भी है, अनारम्भी नहीं है ।
अविरति की अपेक्षा से असंयत तेजोलेशी जीव आत्मारम्भी भी है यावत् तदुभयारम्भी भी है, अनारम्भी नहीं है ।
इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कितनेक तेजोलेशी जीव आत्मारम्भी है यावत् कितनेक जीव अनारम्भी भी है ।
शुभयोगवाला प्रमत्त संयत अनारम्भी है और अशुभयोगवाला आत्मारम्भी आदि है । इसी प्रकार पद्मलेशी तथा शुक्ललेशी जीव के विषय में जानना चाहिए ।
व्याख्या - टीकाकार श्री अभयदेव सूरि तीन भाव लेश्याओं में संयम नहीं मानते हैं, किन्तु यह बात संगत नहीं होती हैं, क्योंकि जीव को चारित्र आते ही
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