SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 540
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७८ लेश्या-कोश में सातवां गुणस्थान हो आता है । फिर जीव सातवें गुणस्थान से छट्ठ े गुणस्थान आ सकते हैं । किन्तु नीचे के गुणस्थानों से नहीं । सातवें गुणस्थान ( अप्रमत्तसंयत ) में तो तेजो, पद्म और शुक्ल ये तीन लेश्यायें ही होती है और घट्ट गुणस्थान छओं ही लेश्याएँ हैं । और यदि उनमें भाव कृष्णादि लेश्याएँ मानी जाय तब तो उनमें द्रव्य कृष्णादि लेश्याएँ मानी जा सकती हैं। क्योंकि उन भावलेश्याओं के बिना वे द्रव्यलेश्याएं प्राप्त नहीं हो सकतीं। हां, यह हो सकता है कि भावलेश्या हटजाने के बाद भी दव्यलेश्या कुछ समय तक रह सकती है किन्तु भावलेश्या के बिना द्रव्यलेश्या नहीं आ सकती । भावलेश्या तो उन-उन द्रव्यलेश्याओं के बिना भी आ सकती है | चारित्र ( छट्ट े गुणस्थान ) में छः लेश्याए आगम में बताई है । जबकि जीव सातवें गुणस्थान से ही छठ्ठे में आते हैं और सातवें में तीन ही लेश्याएं हैं, तो फिर छठु में तीन तो भावलेश्या और कृष्णादि तीन द्रव्यश्या, ये छः माने तो तीन भावलेश्याओं का मानना भी ठीक हो जायेगा, क्योंकि वे तो सातवें में थी ही, किन्तु कृष्णादि तीन द्रश्यलेश्या कहां से आई ? क्योंकि भावलेश्या के बिना द्रव्यलेश्या आ नहीं सकती, यह ऊपर बताया जा चुका है । अतः कृष्णादि तीन भावलेश्याओं के मानने पर ही कृष्णादि तीन द्रव्यलेश्याओं का मानना युक्ति संगत हो सकेगा । कृष्णादि अशुभलेश्याओं के भी असंख्यात स्थान दर्ज हैं । उनमें में से नीचे के ज्यादा खराब अशुभ स्थानों को छोड़कर ऊपर के कम अशुभ स्थानवाले परिणाम थोड़ी देर के लिए किसी-किसी के हो सकते हैं। हां, यह बात अवश्य है कि कृष्णादि तीन अशुभलेश्याओं में चारित्र की प्राप्ति नहीं होती, परन्तु चारित्र प्राप्त हो जाने के पश्चात् वे कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याएं आ सकती हैं । जैसा कि भद्रबाहुस्वाभि विरचित आवश्यक नियुक्ति की उपोद्घात नियुक्ति में कहा है "पुव्व पडिवण्णओ पुण अण्णयरीए उ लेस्साए ।" अर्थात् चारित्र प्राप्ति के पश्चात् साधु में कोई भी लेश्या हो सकती हैं । जैसे कि मनः पर्यवज्ञान अप्रमत्त संयत को ही प्राप्त होता है, किन्तु मनः पर्यवज्ञान प्राप्त हो जाने के पश्चात् वह प्रमत्त संयत में रह सकता है । भगवती श८ । उ २ तथा पन्नवणा पद १७ । उ ३ कृष्णादि पांच लेश्याओं में चार ज्ञान तक बतलाये हैं । अतः इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जब कृष्णादि अशुभलेश्याओं में मनः पर्यवज्ञान है तो वह भावलेश्या ही हो सकती हैं, क्योंकि द्रश्यश्या तो पुद्गल है । अतः चारित्र प्राप्ति के बाद इन संयत जीवों में कृष्णादि लेश्या भी कभी हो सकती हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy