________________
३१६
लेश्या-कोश कृष्णलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में भी ग्यारह उद्देशक वैसे ही कहने चाहिये जैसे कृष्णलेशी एकेन्द्रिय के ग्यारह उद्देशक कहे, लेकिन 'कृष्णलेशी' के स्थान में 'कृष्णलेशी भवसिद्धिक' कहना चाहिये । ___ नीललेशी' के स्थान में नीललेशी भवसिद्धिक' कहना चाहिये । 'कापोलेशी' के स्थान में 'कापोतलेशी भवसिद्धिक' कहना चाहिये । '७६ ३ सलेशी अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय और कर्मप्रकृति का सत्ता-बंधन-वेदन
काविहा णं भंते ! अभवसिद्धिया एगिंदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा अभव सिद्धिया एगिंदिया पन्नत्ता, तं जहा-पुढविकाइया, जाव वणस्सइकाइया । एवं जहेव भवसिद्धियसयं भणियं, [ एवं अभवसिद्धियसयं ] नवरं नव उद्देसगा चरमअचरमउद्देसगवज्जा, सेसं तहेव । एवं कण्हलेम्सअभवसिद्धियएगिदियसयं वि । नीललेस्सअभवसिद्धियएगिदिएहि वि सयं । काउलेस्सअभवसिद्धियसयं, एवं चत्तारि वि अभवसिद्धियसयाणि, नव नव उद्देसगा भवंति, एवं एयाणि बारस एगिदियसयाणि भवंति ।
-भग० श ३३ । श ६ से १२ । पृ० ६१६ __ कृष्णलेशी अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय का शतक उसी प्रकार कहना चाहिये, जिस प्रकार कृष्णलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय का कहा • लेकिन चरम-अचरम उद्देशकों को बाद देकर नव उद्देशक कहने चाहिये ।
इसी प्रकार नीललेशी अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय के नव उद्देशक कहने चाहिये तथा कापोतलेशी अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय के भी नव उद्देशक कहने चाहिये । •७६'४ सलेशी जीव और उत्तर कर्म प्रकृति का सत्ता-बन्धन-वेदन
लेश्यामार्गणायां कृष्णनीलकपोतानां बन्धयोग्यं ११८ आहारकद्विकाभावत् । x x x तेजोलेश्यायां बन्धयोग्यं १११ मिथ्यादृष्टेश्चरमसूक्ष्मत्रयादिनवानामभावात् । x x x पद्मलेश्यानां बन्धयोग्यं १०८, वामस्यान्तद्वादशानामभावात् । x x x शुक्ललेश्यानां बन्धयोग्यम् १०४। सदरचउक्कं मिथ्यादृष्ट्ये केन्द्रियाद्यन्त्यद्वादश च नहि।
-गोक० गा ११६ । टीका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org