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लेश्या-कोश
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लेश्या मार्गणा में ( सलेशी ) कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में बन्धयोग्य एक सौ अठारह प्रकृति है, आहारकद्विक नहीं है ( १२० -२ = ११८ ) है |
तेजोलेश्या में बन्धयोग्य एक सौ ग्यारह है क्योंकि मिथ्यादृष्टि में व्युच्छिन्न होने वाली सोलह प्रकृतियों में से अन्त की सूक्ष्मत्रिक आदि नौ का अभाव है । ( १२० - - १११ ) पद्म लेश्या में बन्धयोग्य १०८ है क्योंकि मिथ्यादृष्टि में व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों में से अन्तिम बारह का अभाव है । शुक्ललेश्या में बन्धयोग्य १०४ है । क्योंकि शतार चतुष्क और मिथ्यादृष्टि में व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों में से अन्त की एकेन्द्रियादि बारह नहीं होती है ।
व्याख्या - तेजोलेश्या में १२० प्रकृतियों में से ६ प्रकृति का ( सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नरकगति, नरकगत्यानुपुर्वी, नरकायु इन नौ का बंध नहीं होता ) न्यून होने से १११ प्रकृतियों का बंध होता है ।
पद्म लेश्या में १२० प्रकृतियों में बारह प्रकृति का ( ६ तेजो लेश्या की तरह तथा एकेन्द्रिय, स्थावर, आतप - इस प्रकार बारह प्रकृति का बंधन नहीं होता है ) न्यून होने से १०८ प्रकृतियों का बंध होता है ।
शुक्ल लेश्या में १२० प्रकृतियों में सोलह प्रकृति ( क्योंकि शतार चतुष्कतिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चानुपूर्वी, तिर्यञ्चायु, उद्योत ) और मिथ्यादृष्टि में व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों में से एकेन्द्रियादि बारह नहीं होती है । अतः १०४ प्रकृति का बंध है |
पंच णव दोणि छव्वीसमवि य चउरो कमेण सत्तट्ठी । दोणि य पंच य भणिया एदाओ बंधपयडीओ ।।
अर्थात् पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, छब्बीस मोहनीय ( क्योंकि मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति उदय और सत्ता में कही गयी है ) चार आयु, सड़सठनाम ( क्योंकि दस बंधन, दस संघात और सोलह वर्णादि का अंतर्भाव कर लेते हैं । ) दो गोत्र, पांच अन्तराय - इस प्रकार एक सौ बीस प्रकृतियां बंध योग्य हैं । ( ५+६+२+२६+४+६७+२+५ = १२० )
- गोक० गा ३५
कृष्णादि तीन लेश्याओं में आहारक शरीर व आहारक शरीरांगोपांग का बंधन न होने ( १२०-२ - ११८ ) ११८ प्रकृति का बंध होता है ।
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