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( ४.८ ) केण षि कारणेण दिग्गउ । णिय-पुरु-मेल्लिवि सहस्सा णिग्गउ ॥ अदंसणु कचाउ - उग्घाडणु। सिविखधि लोय-बुद्धि-णिद्धाउणु॥ विज-चोर णिय-णाउ कहेप्पिणु।
पंचसयाइँ सहायहं लेप्पिणु ॥ घत्ता-बलवंतहिं मंतहिं तंतहिं गाषिउ दुक्कड तकरू। अंधारइ घोरइ पसरियइ रयणिहि दूसियभक्खरू ॥२५
-वीरजि० संधि ४/कड २
(जब जम्बूस्वामी रात्रि में अपनी पत्नियों को धर्मोपदेश से समझा रहे थे ) तभी उनके घर में एक चोर ने प्रवेश किया। यह चोर यथार्थतः उसी समय सुरम्यदेश की राजधानी पोतनपुर के विद्यतशय नामक राजा का पुत्र था। उसका नाम विद्यञ्चर था। और वह सुभटों का अग्रणी था। वह शत्र रूपी पर्वतों के लिए वनसमान दिग्गज किसी कारण से क्रुद्ध हो गया और अकस्मात अपना नगर छोड़कर चला गया। उसने अदृश्य होने, कपाट खोलने तथा लोगों की बुद्धि विनष्ट करने की विद्या सीख ली एवं अपना नाम विद्युच्चोर रख लिया। वही अपने पाँच सौ सहायकों को लेकर तथा मंत्र-तंत्रों का गर्व रखता हुआ रात्रि के घोर अंधकार में दूषित अन्नमक्षी तस्कर के रूप में उस घर में पहुँचा ।
माणवेण णउ केणधिविहुउ । अरु हदास - पणि - भवणि पाहा॥ दिट्ठी तेण तेत्थु पसरिय - णस । जिणवरदासि 8 - णिहालस ॥ पुच्छिय सुमाले कि चेयलि । भणु भणु माइरि कि णउ सोषसि ।। ताई पवोल्लिउ महु सुउ सुह-मणु । परइ बप्प पइसरइ तपो षणु। पुत्त - विओय · दुषखुतणु तापा । तेण णिह महु किं पि पिणापा । बुद्धिमंतु तुहुँ बुह पिण्णयहिं। एर णिधारहि सुहडोषायहि ॥
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