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( ४०६ )
पहूँ हउँ बंधवु परमु
वियव्यमि ।
समप्यमि ||
जं मग्गहि तं दचिणु तं णिसुणिवि णिरुक्कु गउ तेत्तहि । अच्छा सहुँ बहुयहिं
रुजेत्तहि ॥
जंपर भो कुमार परतोय - गण
जणु
णियडु ण माणइ दुरुजि पल्लउ तणु मुपवि
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णउ जुजइ । जिखिजद्द ||
पेच्छइ ।
महुछइ ॥
सिलायली ।
णिष्फलि ॥
णिवडिउ कक्करि सेलि जिह सो तिह तुहुँ मरहि म तचि किं लग्गइ माणहि ता पभणइ बरु तुहुँ विजि सुण्णउ ||
कण्णउ |
जीवहु तित्ति भोए उ
इंदिय सोक्खें तिट्ठ ण
·
विजइ ।
छिज्जइ ॥
पत्ता-ता घोरें चोरें बोल्लियर सबरें विद्धउ कुंजरू । सो भिल्लु ससल्लु दुभासिएण फणिणा दट्ठउ दुद्धरु ॥ - विरजि० संधि ४ / कड ३
चोर की जंबूस्वामी की माता से बातचीत और फिर जंबूस्वामी से बार्तालाप -
अहदास सेठ के भवन में प्रवेश करने पर भी उसे किसी भी मनुष्य ने नहीं देख पाया । उस चोर ने वहाँ यशस्विनी जिनदासी सेठानी को निद्रा और आलस्य रहित जागती हुई देखा । तब चोर ने उसे पूछा कि हे माता ! तुम जाग क्यों रही हो, सोती क्यों नहीं। सेठानी ने कहा- मेरा शुद्धमन पुत्र अगले दिन तपोवन में प्रवेश करेगा। यह पुत्र वियोग का दुःख मेरे शरीर को तप्त कर रहा है और इसलिए है बाबू, मुझे तनिक भी निद्रा नहीं आती । तु बुद्धिमान है अतएव हे सुमट, किन्हीं बुद्धिमानों द्वारा जाने हुए उपायों से इसको रोक ले। मैं तुझे अपना परम बन्धु समझती हूँ। अतएव यह काम कर देने पर तु जितना धन मांगेगा मैं उतना ही दूंगी। सेठानी की यह बात सुनकर विद्युच्चोर उसी स्थान पर गया जहाँ अपनी वधुओं के साथ वर बैठा था । वह चोर बोला – हे कुमार ! यह तुम्हें उचित नहीं है कि अपने परलोक के आग्रह से तुम अपने स्वजनों को खेद उत्पन्न करो। तुम निकट की बात को तो देखते नहीं, दूर की वस्तु देखते हो ।
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