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यद्यमुना ग्राहयिष्ये नृपाद् ग्रामादिकं तदा । दाराम्मदाय
करिष्यत्यपरान्
विभवः
दिनं
खलु ॥ ८७ प्रत्येक आलोचस्तथाऽग्रासनभोजनम् ।
दीनारो दक्षिणायां च याच्योऽथेत्यन्वशात्पतिम् ॥ ८८ ॥
दयाचे तत्तथा विप्रो राजाभदात्तद्वदन्निदम् । करकोsfoधमपि प्राप्य गृहात्यात्मोचितं पयः ॥ ८६ ॥ प्रत्यहं तत्तथा लेभे प्राप संभावनां व सः । पुंसां राजप्रसादो हि चितनोति महार्घताम् ॥ ६० ॥ राजमान्योऽयमित्तेष लोकैर्नित्यं न्यमंत्र्यत । यस्य प्रसन्नो नृपतिस्तस्य कः स्यान्न सेवकः ॥ ६१ ॥ अग्रे भुक्तं बालयित्वा बुभुजेऽनेकशोऽपि सः । प्रत्यहं दक्षिणा लोभाद्धिग्धि ग्लोभो द्विजन्मनाम् ॥ ६२ ॥ विविधैर्दक्षिणाधनैः #1 पादैरिववद्रुमः ॥ ६३ ॥
उपाचीयत
प्रासरस्
विप्रः पुत्रपौत्राद्यैः
स
- त्रिशलाका० पर्व १०१ सर्ग ६
विप्र ने कहा- हमारी स्त्री को पूछ कर बाद में मांग लूँगा । गृहस्थों को गृहणी के बिना विचार करने का दूसरा स्थान नहीं है। भट जी खुशी होते हुए घर आये तथा ब्राह्मणी को सब वार्त्ता कही ।
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बुद्धिशाली ब्राह्मणी ने मन में विचार किया - यदि राजा के पास से ग्रामादिक मांग लेगा तो भटजी वैभव के मद से जरूर दूसरी स्त्री से विवाह करेंगे । ऐसा विचार कर वह बोली – हे नाथ! आपके प्रतिदिन भोजन करने का और दक्षिणा में एक सोने का महोर राजा के पास से मांग लो ।
इस प्रकार उसने स्वयं पति को समझाया |
अस्तु वह जाकर उस प्रकार राजा के पास से मांग लिया ।
राजा ने कहा- गागर समुद्र में जाय तो भी स्वयं के योग्य हो उतना जल को प्राप्त होता है ।
अब प्रतिदिन वह सेडुक ब्राह्मण उतना ही लाभ, उतना ही सम्मान पाने लगा ! पुरुषों को राजा का प्रासाद महार्घ्यपन को विस्तार करता है।
यह राजा का मानित है- "ऐसा धारण कर लोक नित्य उसको आमन्त्रित करते थे ।" जिस पर राजा प्रसन्न होता उसका सेवन कौन नहीं होता । इस प्रकार एक से एक
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