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अभिगय-जीपाजीवे जाव उवलद्ध-पुण्ण-पावे फासुयएसणिज्जं असणं पाणं साइमं साइमं पडिलाभेमाणे विहरिस्सामि । सेतं साहु ।
दसासु द१.
हे आयुष्यमन् भमण ! इस प्रकार मैंने धर्म प्रतिपादन किया है, यही निर्ग्रन्थ-प्रवचन यावत् सत्य और सब दुःखों का नाश करने वाला है । इस धर्म में पराक्रम करते हुए निर्ग्रन्थ या निर्यन्थी को देव और मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों की ओर वैराग्य उत्पन्न हो जाय, क्योंकि मनुष्यों के कामभोग अनित्य है। इसी प्रकार देवों के काम भोग भी अनिश्चित, अनियत और विनाशशील है और चलाचल धर्म वाले अर्थात अस्थिर तथा अनुक्रम से आते और जाते रहते हैं । मृत्यु के पश्चात अथवा बुढ़ापे से पूर्व ही अवश्य ही त्याज्य है ।
यदि इस और नियम की कुछ फल विशेष है तो आगामी में ये जो महामातृक उग्र आदि कुलों में पुरुष रूप से उत्पन्न होते हैं उनमें से किसी एक कुल में मैं भी उत्पन्न हो जाऊं और श्रमणोपासक बनूं । फिर मैं यावत् जीव, पुण्य, पाप को भली प्रकार जानता हुआ यावर अचित्त और निर्दोष अन्न, पानी, खादिम और स्वादिम पदार्थ मुनियों को देता हुआ विचरण करूँ। यह मेरा विचार ठीक है ।
एवं खलु समणाउसो निग्गंथो वा निग्गंथी वा णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइय जाव देवलोएसु देवत्ताए उववज्जन्ति जाव कि ते आसगस्स सदति।
दसासु० द १० हे आयुष्यमन् ! श्रमण ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थियाँ निदान कर्म करके उसका उस स्थान पर बिना आलोचन किये-यावत् देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हो जाते हैं । इसके अनन्तर वे देवलोक से आयु आदि क्षय होने के कारण यावत उग्रकुल में कुमार रूप से उत्पन्न हो जाते हैं ।
फिर पहले दूसरे आदि निदान कर्म करने वालों के समान आपके मुख को कौनसा पदार्थ अच्छा लगता है। इत्यादि ।
तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिसजातस्स चि जाव पङि सुणिजा से णं सहेज्जा जाव ? हंता ! सद्दहेज्जा । से णं सीलव्वय जाव पोसहो ववासाइ पडिवज्जेज्जा ? हंता ! पडिवज्जेज्जा । से णं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवएज्जाणो तिण? समह।
दसासु ० द १० वह जीव और अजीव को जानने वाला श्रमणोपासक होता है। यावत् श्रमण और निर्गन्थों को आहार और जल आदि देता हुआ रिचरता है। फिर वह इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक की पर्याय को पालन करता है और पालनकर
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