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( २६८ ) भाषक के धर्म का विवेचन
अभिगत-जीवाजीवे जाव अद्वि-मिजा-पेमाणु-रागरते अयमाउसो निग्गंथपावयणे अढे एस परम8 सेसे अणद्वे । सेणं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूईपालाई समणोवासग-परियागं पाउणइ बहूई वासाइ पाउणित्ता कालमासे कालं किञ्चा अण्णत्तरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति।
एवं खलु समणाउसो तस्स णिदाणस्स इमेयारूवे पावए फल-विवागे जं णो संचाएति सीलव्वयं गुणव्वयं-पोसहोववासाई पडिवजित्ताए।
दसासु० द१०
वह जीव और अजीव को जानता है और भावक के गुणों से संपन्न होता है, उसकी हड्डी और मजा में धर्म का अनुराग कूट-कूट कर भरा रहता है। हे आयुष्मन् । यह निग्रन्थ-प्रवचन ही सत्य और परमार्थ है। शेष सब अर्थ है ।
इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक की पर्यायों का पालन करता है और फिर उस पर्याय का पालन कर मृत्यु के समय काल करके किसी एक देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है ।
__ हे आयुष्ममन् ! श्चमण ! इस प्रकार उस निदान कर्म कापाप रूप फलत्रिपाक होता है, जिससे कम के करने वाले व्यक्ति में शील व्रत, गुणवत, प्रत्याख्यान और पोषधोपवासादि ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न नहीं होती।
टीका-एवंविधगुणविशिष्टः स बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायं परिपालयति। केवलेनापि सम्यक्त्वेनश्रावक उच्यत इत्याकूतम् । अतएव-चरतोऽपि दर्शन-श्रावक उच्चते । अस्यामेव क्रियायां प्रधानतरप्वात्।
इस प्रकार श्रावक के गुणों से युक्त है। बह बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करता है। केवल सम्यक्त्व के कारण उसको दर्शन भावक कहा जाता है। भरत को भी दर्शन श्रावक कहा जाता है । आठवां निदान
एवं खल समणाउसो मएधम्मे पन्नत्ते तं चेव सव्वं जाव । से य परक्कममाणे दिव्वमाणुस्सएहिं कामभोगेहिं निव्वेदं गच्छेजा माणुस्सगा कामभोगा अधुवा जाव विप्पजह-णिजा दिव्वावि खलु कामभोगा अधुवा अणितिया असासया चलाचलणधम्मा पुणरागमणिजा पच्छापुष्वं च णं अवस्सं विप्पजहणिजा ।
संति इमस्स तवनियमस्स जाव आगमेस्साणं जे इमे भवंति उग्गमेत्ता महामाउया जाव पुमत्ताए पञ्चायति तत्थणं समणोवासए भविस्लामि ।
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