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( 28 ) अपना सेवक बना दिया था। वे राजा सदैव यही चिन्तन करते कि उदायी राजा जीवित रहते हुये हम सुखपूर्वक स्वच्छंदता से नहीं जी सकते।
एक बार किसी एक राजा ने कोई अपराध कर डाला। उदायी ने अत्यन्त ऋद्ध होकर उसका राज्य छीन लिया। राजा वहाँ से पलायन कर शरण पाने अन्यत्र जा रहा था। बीच में ही उसकी मृत्यु हो गयी। उसका पुत्र भटकता हुआ उजयिनी नगरी में गया और राजा के पास रहने लगा । अवन्तीपति भी उदायी से क्रूद्ध था। दोनों ने मिलकर उदायी को मार डालने का षड्यन्त्र रचा।
___ वह राजपुत्र उजनिनी से पाटलीपुत्र आया और उदायी का सेवक बन रहने लगा। उदायी को यह मालूम नहीं था कि यह उसके शत्रु राजा का पुत्र है। वह राजकुमार उदायी का छिद्रान्वेषण करता रहा परन्तु उसे कोई छिद्र न मिला ।
उसने जैन मुनियों को उदायी के प्रासाद में बिना रोक-टोक आते-जाते देखा। उसके मन में भी राजकूल में स्वच्छंद प्रवेश पाने की लालसा जाग उठी। वह एक जेन आचार्य पास प्रबजित हो गया। अब वह साधु-आचार को पूर्णतः पालन करने लगा। उसकी आचार निष्ठा और सेवा भावना से आचार्य का मन अत्यन्त प्रसन्न रहने लगा। वे इससे अत्यन्त प्रभावित हुए। किसी ने उसकी कपटता को नहीं आँका।
महाराज उदायी प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को पौषध करते थे और आचार्य उसको धर्म कथा सुनाने के लिए पास में रखते थे।
एक दिन पौषध-दिन में आचार्य सायंकाल उदायी के निवास स्थान पर गये। वह प्रवजित राजपुत्र भी आचार्य के उपकरण ले उनके साथ गया। उदायी को मारने की इच्छा से उसने अपने पास एक तीखी कैंची रख ली थी। किसी को इसका भेद मालूम नहीं था। वह साथ-साथ चला और उदायी के समीप अपने आचार्य के साथ बैठ गया।
आचार्य ने धर्म प्रवचन किया और सो गए। महाराज उदायी भी थक जाने के कारण वहीं भूमि पर सो गये। वह मुनि जागता रहा। रौद्र ध्यान में वह एकाग्र हो गया और अवसर का लाभ उठाते हुए अपनी कैंची राजा के गेले पर फेंक दी। राजा का कोमल कंठ छिद गया । कंठ से लहु बहने लगा।
वह पापी श्रमण वहाँ से बाहर चला गया। पहरेदारों ने भी उसे श्रमण समझ कर नहीं रोका।
रक्त की धारा बहते-बहते आचार्य के संस्तारक तक पहुँच गयी। आचार्य उठे। उन्होंने कटे हुए राजा के गले को देखा। वे अवाक रह गये। उन्होंने शिष्य को वहाँ न देखकर सोचा-"उस कपटी श्रमण का ही यह कार्य होना चाहिए, इसलिये वह कहीं भाग गया है। उन्होंने मन ही मन सोचा-राजा की इस मृत्यु से जैन शासन कलंकित होगा।
और सभी यह कहेंगे कि एक जैन आचार्य ने अपने ही भावक को मार डाला। अतः मैं प्रवचन की ग्लानि को मिटाने के लिए अपने आपकी घात कर डालूं। इससे यह होगा कि लोग सोचेंगे-राजा और आचार्य को किसी ने मार डाला। इससे शासन बदनाम नहीं होगा।
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