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________________ पुद्गल-कोश १०९ विवक्षित क्षेत्र में कोई पुद्गलस्कंध कल्पित रूप से आकाश के दस प्रदेशों को अवगाढ कर जब तक रहता है तब तक उस पुद्गलस्कंध का वह अवस्थान क्षेत्रस्थानायु कही जाती है। वही पुद्गलस्कंध जब विवक्षित क्षेत्र से क्षेत्रान्तरों में जाकर भी आकाश के दस ही प्रदेश को अवगाढ करके रहता है तब तक वह अवस्थान उसकी अवगाहनास्थानायु कहलाती है। जब वही पुद्गलस्कंध विस्रसापरिणाम वश पिण्डितरूत न्याय ( एकत्रित और शब्दायमान ) से संकुचित होता हुआ आकाश के पांच प्रदेशों में अथवा अपिण्डितरूत न्याय (विस्तरित हुआ और शब्दायमान ) से फैलता हुआ आकाश के पन्द्रह प्रदेशों को अवगाढ करके रहता है उतने समय पर्यन्त उस पुद्गलस्कंध की द्रव्यस्थानायु कहलाती है। ___ जब वही पुद्गलस्कंध स्व-परमाणु के वियोजन अथवा अपर-परमाणु के संयोजन से द्रव्यान्तरत्व को प्राप्त होकर भी जब तक अपने पूर्व पर्याय-कृष्णत्वादि गुण को नहीं छोड़ता है तब तक कृष्णत्वगुण में अवस्थान उस पुद्गलस्कंध की भावस्थानायु कहलाती है। उन क्षेत्रस्थानायु, अवगाहनास्थानायु, द्रव्यस्थानायु और भावस्थानायुओं में परस्पर में अल्पबहुत्व होता है तब विचार करने पर पुद्गलों की क्षेत्रस्थानायु सबसे कम होती है, शेष जो अवगाहनास्थानायु प्रभृति तीन हैं उनमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुण कैसे हैं यह प्रश्न रह जाता है । खित्तामुत्तत्ताओ, तेण समं बंधपच्चयाभावा । तो पोग्गलाण थोवो, खित्तावट्ठाणकालो उ॥२॥ अभयदेवसूरि टीका क्षेत्रस्य अमूर्तत्देन क्षेत्रेण सह पुद्गलानां विशिष्टबंधप्रत्ययस्य स्नेहादेरभावाद् नैकत्र ते चिरं तिष्ठन्ति इति शेषः, यस्माद् एवं तत इत्यादि वक्तव्यम् । रत्नसिंहसूरि टोका-क्षेत्रास्याकाशस्यामूर्तत्वेन तेन क्षेत्रेण सह पुद्गलानां विशिष्टबंधप्रत्ययस्य विशिष्टबंधकारणस्य स्नेहादेरभावान्नैकत्र क्षेत्रेऽतिचिरं तिष्ठन्तीति शेषः। अयमभिप्रायः-विवक्षितक्षेत्रे विशिष्टपरिणामवन्तः पुद्गलाश्चिरावस्थानकारणाभावात् कियन्तमपि कालं स्थित्वा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016030
Book TitlePudgal kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1999
Total Pages790
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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