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पुद्गल-कोश तमेव परिणाममत्यजन्तोऽपरापराणि क्षेत्राणि स्पृशन्तीति यस्मादेवं ततः पुद्गलानां क्षेत्रावस्थानकालः 'थोवो' इति सर्वस्तोकः इत्यर्थः ।
क्योंकि क्षेत्र (आकाश) अमूर्तिक होने से उसके साथ पुदगलों के बंध का कारण स्निग्धत्व न होने से पुद्गलों का क्षेत्रावस्थान काल सबसे थोड़ा है अर्थात् क्षेत्र अमूर्तिमान होने के कारण, इसीलिए उसमें पुद्गलों का विशिष्ट बंध का कारण स्नेह आदि न होने के कारण वह पुद्गल एक ही क्षेत्र में लम्बे काल तक नहीं रहता है ।
विवक्षित क्षेत्र में विशिष्ट परिणाम वाले पुद्गल एक स्थान में बहुत समय तक नहीं रहने के कारण-कुछ काल उस स्थान में रहकर उस परिणाम को न छोड़ते हुए दूसरे क्षेत्रों का स्पर्श करते है जिस कारण से ऐसा होता है। इस प्रकार क्षेत्रस्थानायु सबसे अल्प है।
अन्नखित्तगयस्स वि, तं चिअ माणं चिरंपि संचरइ ।
ओगाहणनासे पुण, खित्तन्नत्तं फुडं होइ ॥३॥ ___अभयदेवसूरि टीका-इह पूर्वाऽर्धन क्षेत्राद्धाया अधिका अवगाहनाद्धा इत्युक्तम् उत्तरार्धेन तु अवगाहनाद्धातो नाऽधिका क्षेत्राद्धा-इति । _ रत्नसिंहसूरि टीका-अन्यक्षेत्रगतस्यापि पुद्गलस्कंधस्य तदेव प्रमाणं सैवावगाहना चिरमपि संचरति अवतिष्ठते। अयमाशयः-विवक्षितक्षेत्रे यावत्सु आकाशप्रदेशेषु परमाणुस्कंधोऽवस्थित आसीत्, तावत्प्रदेशव्यापितयाऽन्यक्षेत्रगतोऽपि लभ्यत इति। अवगाहनानाशे पुनः क्षेत्रान्यत्वं स्फुट भवति ; अवगाहनानाशश्च परमाणुस्कंधस्य संकोचेन स्तोकप्रदेशाऽवस्थायितायां विकाशेनाधिकप्रदेशावस्थायितायां वा संभवतीति । .. ओगाहणावबद्धा, खिसद्धा अक्किआवबद्धा य।
न उ ओगाहणकालो, खित्तद्धामित्तसंबद्धो ॥४॥ अभयदेवसूरि टीका—अवगाहनायाम्-अगमनक्रियायाम् च नियता क्षेत्राद्धाविविक्षित-अवगाहनासद्भाव एव अक्रियासद्भाव एव च तस्या भावात्-उक्तव्यतिरेके च अभावात्-अवगाहानाद्धा न क्षेत्रमाने नियता, क्षेत्रद्धाया अभावेऽपि तस्या भावादिति ।
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