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पूर्वकार्य का अध्ययन डा. मुरलीधर श्रीवास्तव ने स्वर-व्यंजन के भेद के आधार पर (१) स्वरान्त धातुएँ और (२) व्यंजनान्त धातुएँ - ऐसे दो वर्ग सूचित किये हैं. अक्षर-संख्या के आधार पर (१) एकाक्षरी, (२) द्वयक्षरी और (३) यक्षरी वर्ग बताए हैं. मूल और यौगिक से स्वतंत्र रूप से (1) उत्पाद्य, ( 2 ) अनुत्पाद्य और (3) अल्पोत्पाद्य - ऐसे भेद भी सोदाहरण बताए हैं और कुछ सोचकर आखिर कहा है कि इन्हें एक ही धातु के रूपान्तर कहना चाहिए. डा. श्रीवास्तव 'संयुक्त धातु' को भी स्वतंत्र वर्ग मानते हैं; वास्तव में वे बात करते हैं संयुक्त क्रियाओं की.
गुजराती के भाषाविद् नरसिंहराव दिवेटिया ने सन् 1921 में गुजराती धातुओं को तीन वर्गों में बाँटा था : (क) तत्सम, अर्धतत्सम (ख) उपसर्गयुक्त धातुएँ तथा तद्भव के रूप में संक्षिप्त. ये दोनों वर्ग साधित धातुओं के अंतर्गत आ सकते हैं. (ग) नामधातुएँ. यह वर्गीकरण पर्याप्त नहीं है परन्तु लेखक के समय-संदर्भ को खयाल में रखने पर आदर जगाता है. नरसिंहराव जी ने व्युत्पत्ति के बारे में विस्तार से विचार किया है.
श्री के. का. शास्त्री ने ऐतिहासिक संदर्भ में रूप-रचना विषयक परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए गुजराती धातुओं को सात भागों में बाँटा है :
(1) विभिन्न विकरण-प्रत्ययों के निकल जाने के बाद अकारांत अंग के रूप में. (२) विकरण-प्रत्यय निकल गया न हो और धातु अकारांत हो. (3) मूल संस्कृत धातुओं के प्रेरक रूपों से जो 'आप' है उसके 'अव' होने पर प्राप्त
होते रूप. (4) कुछ भूतकृदंत से बने गुजराती भूतकृदंतों के द्वारा प्राप्त रूप. (5) जिनमें अकारांत अंग नहीं हैं ऐसी मूल धातुएँ, (6) कुछ नाम-विशेषण के आधार से केवल क्रियावाचक अंग के रूप में प्राप्त तथा (7) अनुकरणवाचक स्वतंत्र धातुएँ. * 5
शास्त्रीजी ने साधित धातुओं के वर्ग के विषय में भी अलग से लिखा है. इन्होंने नरसिंहराव के वर्गीकरण से कुछ आगे बढ़ने का प्रयत्न अवश्य किया है परन्तु वे चटर्जी के वर्गीकरण को लक्ष्य करके गुजराती धातुओं के बारे में सोचते तो निश्चित भूमिकाओं पर और भी व्यापक वर्गीकरण कर सकते. ९ धातुओं को व्युत्पत्ति :
___ डा. सुनीतिकुमार चटर्जी ने बंगला भाषा का इतिहास लिखा है वैसा कोई व्युत्पन्न ग्रंथ हिन्दी या गुजराती भाषा में उपलब्ध नहीं है. डा. उदयनारायण तिवारी, डा. धीरेन्द्र वर्मा तथा डा. भोलानाथ तिवारी आदि विद्वानों ने हिन्दी भाषा के इतिहास लिखे हैं जो अनुस्नातक विद्यार्थियों के लिए सविशेष उपयोगी हैं. प्राचीन, मध्ययुगीन तथा नव्य भारतीय आर्यभाषाओं के विकास का निर्देश करती सामग्री के लिए इन विद्वानों को कुछ पाश्चात्य भाषाविदों तथा चटर्जी महोदय आदि का सहारा लेना पड़ा है. हिन्दी क्षेत्र में संस्कृत के पंडित बहुत हैं और उनमें से कुछ तो चोटि के हैं परन्तु प्राकृत-अपभ्रंश-पुरानी हिन्दी में से किसी एक को अपना अध्ययनक्षेत्र बनानेवाले विद्वान् ( उस कोटि के) नहीं हैं.
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