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हिन्दी गुजराती बलुकोश .. गुजराती के पास पंडित बेचरदासजी तथा डा. भायाणी जैसे प्राकृत-अपभ्रश के विशेषज्ञ
आज़ भी हैं परन्तु उन्होंने भी गुजराती भाषा के उद्भव और विकास का क्रमिक इतिहास नहीं लिखा. डा. प्रबोध पंडिस ने गुमशती का, ध्वनि-संरचनागत अध्ययन सविशेष किया. भाषा का इतिहास वे भी दे सकते, पर हमारे दुर्भाग्य से वे रहे नहीं. ... ... .. ..गुजराती के ऐतिहासिक अध्ययन के लिए प्राथमिक सामग्री की स्थिति हिन्दी की अपेक्षा
बेहतर है. महान जैनाचार्य हेमचन्द्राचार्य ने (-1088 --1172 ई.) प्राचीन गुजराती के आरभिक काल. की सारी सामग्री ग्रंथस्था की है.. उनके प्राकृत व्याकरण में पश्चिमी अपभ्रंश के उदाहरण भी' सुलभ हैं.. हाँ, ये उदाहरण भाषा के साहित्यिक रूपों के हैं, उस युग में उच्चरित भाषा के नहीं. कुछ उदाहरणों के लिपिबढ़े होने और उनके रचनाकाल के बीच भी अंतर 'है. इससे भी कालनिर्णय में और भाषा का क्र मेक विकास समझने में कठिनाइयाँ पैदा होती हैं. डा. प्रबोध पाडत तथा डा. भायाणी ने इस संदर्भ में अध्येताओं को सावधान किया है. ___जहाँ तक प्राप्त सामग्री के आधार पर व्युत्पत्ति-विषयक निकर्ष तक पहुँचने का प्रश्न है, टर्नर आदि प्राश्चात्य विद्वानों ने तथा नरसिंहराव, के. ह. ध्रुव, के. की. शास्त्री, दी. एमे. दवे, भोगीलाल सांडेसरा, प्रबोध पंडित, मधुसूदन मोदी आदी गुजराती ।वद्वानों ने उल्लेखनीय कार्य किया है. डा. भायाणी प्रस्तुत विषय के विरल विद्वान हैं. 1975 में 'व्युत्पत्तिशास्त्र' नामक इननी बहुमूल्य पुस्तक भी प्रकाशित हुई है. वे व्युत्पत्ति को केवल शब्दों का इतिहास नहीं मानते. वे कहते हैं कि उच्चारण, संचरण, अर्थ, व्याकरणगत स्थान या वर्ग, प्रचलन, सामाजिक दरजा आदि शब्द-अध्ययन के तमाम पहलुओं के क्रमिक विकास का इतिहास देखना आवश्यक है. डा. भायाणी ने पुस्तक के चतुर्थ खंड में भाषाविज्ञान के संदर्भ में भी व्युत्पत्तिशास्त्र पर विचार किया है, जिसमें सोशुर आदि पाश्चात्य विद्वानों की मान्यताओं की चर्चा बड़ी रसप्रद है. निष्कर्ष के रूप में याकोव मेलकोल के समर्थन में वे कहते हैं :
"आधुनिक काल के प्रवाही से सुपरिचित जिन भाषाविज्ञानियों ने व्युत्पत्ति के क्षेत्र में गंभीर कार्य किया है उनका अनुसरण करते हुए हम ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की एक शाखा के रूप में ऐतिहासिक कोशविज्ञान को स्वीकार करेंगे और ऐतिहासिक कोशावज्ञान की एक शाखा के रूप में शब्दों के मूल की खोज से सम्बद्ध व्युत्पत्तिविज्ञान को स्वीकार करेंगे.” 46
प्रस्तुत शोधकार्य में धातुओं की सुलभ और संभव व्युत्पत्तियों का समावेश करने की भूमिका यह थी. संदर्भ 1. पृ. 15, सं. ब्या. इ. भाग - २. 2. पृ. 43, भा. भा. चि. 3. पृ. 48, भा. भा. चि. 4. पू. 156, भा. भा. चि. ५. पृ. 133, भा.भा. चि. 6. पृ. 37, भा. भा. चि. 7. पृ. 165, दि. सं ग्रा. 8. दि. डि. आ. सं. ग्रा. पृ. 207 9. दे. पृ. 144, व्या. दा. भू. 10. पृ. 145, व्या. दा. भू. 20?. 11. पृ. 96. भा. आ. औ. हि. 12. दे. पृ. 166, दि. सं. धा. 13. पृ. 21, भा. भा. चि. 14. पृ. 17, भा. भा. चि. 15. पृ. 11, इ. टु थी. लिं. 16. दे. पृ. १९-२०, इ. टु थी. लि. 17. दे. पृ. 151, इ. लि. 18. पृ. 85, भा. भा. तु. अ. 19. पृ. 151, ई लिं. 20. पृ. 221, डि. आ. लिं. 21. पृ. 177 डि. आ.
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