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हिन्दी-गुजराती धातुकोश
भोलानाथ जी की एक आपत्ति यह है कि जिन धातुओं को प्राकृत काल तक ही खोजा जा सकता है उनको प्रस्तुत वर्गीकरण में कैसे रखा जा सकता है ? जैसे हिन्दी 'ऊँघ', प्रा. 'उँघ' मूल तद्भव में सामान्य के अतिरिक्त कर्मवाच्यवाली धातुएँ ( उत्+पद्, उत्पद्यते, प्रा. उपज्जह, उपजना ) भी हैं. इन्हें ऐतिहासिक दृष्टि से अलग रखना चाहिए. - भोलानाथ जी को यह भी अखरता है कि यौगिक के अंतर्गत सादृश्य के आधार से बनी धातुओं के साथ न्याय नहीं हुआ है. वे मानते हैं कि आधुनिक भाषाओं के प्रामाणिक व्युत्पत्तिमूलक कोशों का निर्माण होने से पहले धातुओं को सर्वमान्य रूप से वर्गीकृत करना सम्भव नहीं है, फिर भी वर्तमान ज्ञान की परिधि में उनकी दृष्टि से निम्नांकित वर्गीकरण अधिक निर्दोष है :
क, मूल ख. उपसर्गयुक्त | ग. प्रत्यययुक्त - घ. संयुक्त
अ. कर्तृवाच्य आ. कर्तृवाच्येतर इ. प्रेरणार्थक
-तद्भव |-संस्कृत--परव” तद्भव - परंपरागत
-तत्सम -प्राकृत (पालि, प्राकृत, अपभ्रंश)
|-निर्मित -
-धातु से ( अकर्मक, सकर्मक, प्रेरणार्थक)
संज्ञा
विशेषण -अन्य (नाम ) से
सर्वनाम क्रियाविशेषण
क. तद्भव | ख. परवर्ती तद्भव | ग. तत्सम
घ. विदेशी ड.संदिग्ध व्युत्पत्तिवाली
|-अनुकरणात्मक (ध्वनि, दृश्य आदि)
-संदिग्ध व्युत्पत्ति की
इस वर्गीकरण में भी व्याप्तिदोष तो होता ही है. प्रथम विभाग परंपरागत के अंतर्गत संस्कृत उपविभाग में ऐतिहासिक, रूपगत तथा रचनागत आधार एक साथ लिए गए हैं.
संदिग्ध व्युत्पत्ति की धातुएँ स्वतंत्र वर्ग के अंतर्गत कैसे रखी जा सकती हैं ? व्युत्पत्ति ज्ञात होने पर तो उनका वर्ग निश्चित होकर बदल जाएगा. तब तक उनको अवर्गीकृत धातुओं के रूप में ही देखना चाहिए.
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