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श्रमणविद्या- ३
परमोदार के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। आत्मसम्यक् प्रणिधि का अर्थ हैअपने को सम्यक् कर्म में व्यवस्थित एवं प्रतिष्ठित करना । यहाँ अत्त शब्द चित्त के अर्थ में प्रयुक्त है- 'एत्थ अत्ताति चित्तं, सकलो अत्तभावो' ।
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दुःशील, शीलविपन्न और असमाहित का शतवर्षपर्यन्त जीना श्रेयस्कर नहीं है, ध्यायी एवं प्रज्ञावान का एक दिन का जीना ही श्रेयस्कर है
यो च वस्ससतं जीवे दुस्सीलो असमाहितो । एकाहं जीवितं सेय्यो पञ्ञावन्तस्स झायिनो ।।
(धम्मपद १११ )
चित्त दुर्रक्ष्य और दुर्निवार्य होता है । चित्त से ही लोक का प्रवर्तन होता है, चित्त के कारण ही संसार के लोग परिकर्षित होते हैं। संसार के सभी लोग चित्त के अधीन हैं
चित्तेन नीयति लोको चित्तेन परिकस्सति ।
चित्तस्स एकधम्मस्स सब्बे' व वसमन्वगू'ति ।।
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यदि चित्त सुसमाहित हो जाय तो उसमें राग का प्रवेश नहीं होता है । और वह चित्त ऐश्वर्यों एवं गुणों का प्रापक हो जाता है । सन्मार्ग पर आरूढ़ चित्त सभी अपूर्व सम्पदाओं को देने वाला हो जाता है। भगवान् बुद्ध ने कहा है कि जितना उपकार माता-पिता या दूसरे भाई-बन्धु नहीं कर पाते, उससे कहीं अधिक उपकार ठीक मार्ग पर अर्थात् सम्यक् प्रणिहित लगा हुआ चित्त करता है -
(सं.नि. १ । पृ. ६)
न तं माता-पिता कयिरा अञ्जे वापि च जातका । सम्मापणिहितं चित्तं सेय्यसो नं ततो करे ।। ( धम्मपद ४३)
जितनी हानि या अपकार शत्रु शत्रु की या वैरी वैरी की करता है, उससे कहीं अधिक अनैतिक कार्यों में लगा हुआ चित्त करता है । मिथ्या प्रणिहित चित्त सभी प्रकार के दुःखों का कारण हैं
दिसो दिसो यं तं कयिरा वेरी वा पन वेरिनं ।
मिच्छापणिहितं चित्तं पापियो नं ततो करे ।। ( धम्मपद ४२ )
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