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बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा
जिसने अपने चित्त को दमित कर लिया है, वह सबसे श्रेष्ठ हैअत्तदन्तो ततो वरं (धम्मपद ३२२) । इन यानों से कोई निर्वाण की ओर नहीं जा सकता। अपने चित्त को जिसने दमित कर लिया है, वही सुदान्तचित्त वहाँ पहुँच सकता है—
न हि एतेहि यानेहि गच्छेय्य अगतं दिसं ।
यथात्तना सुदन्तेन दन्तो दन्तेन गच्छति ।। (धम्मपद ३२३)
चित्त सर्वथा प्रभास्वर होता है, वह आगन्तुक मलों से संक्लिष्ट हो जाता है— पकति पभस्सरमिदं चित्तं तं च खो आगन्तुकेहि मलेहि उपकिलिट्ठ ति (अं.नि. १।१०)। चित्त के संकिलष्ट होने से सत्त्व भी प्रदूषित हो जाता है तथा चित्त के विशुद्ध होने पर सत्त्व भी विशुद्ध एवं प्रभास्वर हो जाता है'चित्तसंकिलेसा सत्ता संकिलिस्सन्ति, चित्त वोदाना सत्त विसुज्झन्ति' (सं. ३।१५१)।
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६. बाहुसच्चं अर्थात् बहुश्रुत होना, बहुविस्तीर्ण अनुभवों के आधार पर तात्त्विक दृष्टि के अधिगम को भगवान् बुद्ध ने उत्तम मंगल कहा है।
जो सुत्त, गेय्य, वेय्याकरण (व्याख्या), गाथा, उदान (समुन्नयन गाथा) इतिवृत्तक (ऐसा कहा उपदेश), जातक (पूर्वजन्म की कथा ), अब्भुतधम्म (समुन्नत विचार) तथा वदेल्ल (प्रश्न और उत्तर ) अर्थात् नवङ्ग बुद्ध शासन मे प्रवीण है, वही बहुश्रुत है। यह बहुश्रुतता ही उत्तम मङ्गल है। यह बहुश्रुतत्व अलाभकर को निराकृत करता है और लाभकर को प्राप्त कराता है । यह परमार्थसत्य के साक्षात्कार का परम कारण है। भगवान् बुद्ध ने कहा है कि जो श्रुतवान् (सुतवा) है, वह अलाभकर को छोड़ता है, निन्दनीय को छोड़ता है और अनिन्द्य की रक्षा करते हुए अपने को विशुद्ध रखता है (अ.नि. च.नि. मेत्तावग्ग, २३ । ९६ । १६० ) । पुनः यह कहा गया है कि वह धारण किये धर्म की परीक्षा करता है, क्योंकि अर्थपरीक्षित धर्म ही ध्यान करने योग्य बनते हैं। धर्म के ध्यान देने योग्य होने से उसमें अभिरुचि (छन्द) उत्पन्न होती है। अभिरुचि से उसमें उत्साह की प्रकृति का जागरण होता है । उत्साह करते-करते वह उसका उत्थान करता है। उत्थान से अकुशल धर्मों का प्रदहन होता है। प्रदहन करते करते वह अपने इसी जन्म में परम सत्य का साक्षात्कार कर लेता है। प्रज्ञा से इसे बेध कर देखता है। गृहजीवन से सम्बद्ध बहुश्रुतता भी उत्तम मङ्गल है, यदि यह दोषरहित है दोनों लोकों में मंगल और आनन्द का प्रापक है।
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