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बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा
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करते हैं, इससे प्राप्त हो जाते हैं। इससे सुवर्णता, सुस्वरता, स्वरूपता, आधिपत्य, परिवार, प्रदेशराज्य, ऐश्वर्य, चक्रवर्ती सम्राट का सुख, देवराज्य, प्रत्येक मानवीय उत्तमता, देवलोक का आनन्द, निर्वाण-सम्पदा, मित्रसम्पदा, ज्ञानसम्पदा, विद्याविमुक्ति तथा वशीभाव, प्रतिसंविदा (विवेक), विमोक्ष, श्रावक पारमी प्रत्येक बोधि तथा बुद्धभूमि आदि की प्राप्ति होती है। यह पुण्यसम्पदा महत्तर पुरस्कार प्रदान करती है। यही कारण है ज्ञानी जन कृतपुण्यता (पुण्यसञ्चय) की प्रशंसा करते हैं
एस देवमनुस्सानं सब्बकामददो निधि । यं यं देवाभिपत्थेन्ति सब्बमेतेन लब्भति ।। सुवण्णता सुसरता सुसण्ठाना सुरूपता । अधिपच्च परिवारो सब्बमेतेन लब्भति ।। पदेसरज्जं इस्सरियं चक्कवत्तिसुखं पियं । देवरज्जम्पि दिब्बेसु सब्बमेतेन लब्भति ।। मानुस्सिका च सम्पत्ति देवलोके च या रति । या च निब्बानसम्पत्ति सब्बमेतेन लब्भति ।। मित्तसम्पदमागम्म योनिसो च पयुञ्जतो । विज्जाविमुत्तिवसीभावो सब्बमेतेन लब्भति ।। पटिसम्भिदा विमोक्खा च या च सावक पारमी । पच्चेकबोधि बुद्धभूमि सब्बमेतेन लब्भति ।। एवं महत्थिका एसा यदिदं पुञ्जसम्पदा । तस्मा धीरा पसंसन्ति पण्डिता कतपुञ्जतं ति ।।
(खुद्दकपाठ, निधिकण्डसुत्त) ६. आत्मसम्यक्प्रणिधि को भगवान् बुद्ध ने उत्तम मङ्गल कहा है(अत्तसम्मापणिधि)
यहाँ कुछ लोग ऐसे हैं जो शीलविपन्न होने पर भी अपने को शीलसम्पन्न एवं शीलसमलंकृत के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। श्रद्धारहित होने पर भी अपने को श्रद्धान्वित कहते हैं, अर्थवशाच धनलोलुप, कृपण लेने पर भी अपने को
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