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सम्पादकीय दोनों के लिए उपयोगी होने से इस ग्रन्थ का विशेष महत्त्व है । अनुसन्धान की दृष्टि से भी यह अत्यधिक उपादेय है ।
___'नामरूपसमासो' पालि गद्य-पद्य में रचित लघु ग्रन्थ है। १९१५-१६ में पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन के जर्नल में रोमन लिपि में इसका प्रकाशन हुआ था। बर्मी और सिंहली लिपियों में भी इसका प्रकाशन हुआ है। बौद्ध अभिधर्म में पञ्चस्कन्ध 'नाम' और 'रूप' पदों से अभिहित हैं। दार्शनिक दृष्टि से इनके विवेचन का विशेष महत्त्व है। इस ग्रन्थ को प्रोफेसर रामशङ्कर त्रिपाठी ने देवनागरी में उपलब्ध कराकर जिज्ञासु विद्वानों एवं शोधार्थियों का पथ प्रशस्त किया है।
'कसायपाहुडसुत्तं' प्राकृत गाथाओं में निबद्ध कर्मसिद्धान्त विषयक एक प्राचीन प्राकृत आगम ग्रन्थ है। वर्तमान में संसार भर में इसकी मात्र एक प्रति उपलब्ध है जो ताड़पत्रों पर प्राचीन कन्नड लिपि में लिखी गयी है। यह एक बृहत्काय पाण्डुलिपि है, जिसमें कसायपाहुड के 'गाहासुत्त': यतिवृषभकृत प्राकृत 'चुण्णिसुत्त' तथा मणिप्रवाल शैली में रचित प्राकृत-संस्कृत मिश्रित विस्तृत जयधवला नामक टीका समाहित है। कसायपाहुड की मान्यता जैन श्रमण परम्परा में उस सुदूर अत त से रही है, जब इसमें सम्प्रदाय भेद नहीं हुए थे। देवनागरी लिपि में प्रस्तुत संस्करण डॉ. गोकुलचन्द्र जैन तथा डॉ. श्रीमती सुनीता जैन ने ऐसी अनुसन्धान सामग्री के रूप में उपलब्ध कराया है, जिससे कर्मसिद्धान्त विषयक अनुसन्धान के लिए नवीन और व्यापक दृष्टि प्राप्त होगी।
'दव्वसंगहो' प्राकृत गाथाओं में निबद्ध एक लोकप्रिय लघु कृति है। इस पर अब तक सर्वथा अप्रकाशित 'अवचूरि' नामक संस्कृत टीका उपलब्ध हुई है, जिसे यहाँ प्रथम बार प्रकाशित किया गया है। जैन दर्शन में षड् द्रव्यों का विवेचन विशेष महत्त्व रखता है। पञ्चास्तिकाय और षड्द्रव्य के सिद्धान्त द्वारा जैन दर्शन में जीव और जगत् विषयक विविध बिन्दुओं पर जो चिन्तन प्रस्तुत किया गया है, उसका अध्ययन भारतीय सृष्टिविद्या के सन्दर्भ में किया जाना चाहिए। डॉ. गोकुलचन्द्र जैन तथा श्री ऋषभचन्द्र जैन द्वारा प्रस्तुत इस संस्करण से ऐसे अध्ययन को बल मिलेगा।
श्रमणविद्या भाग दो में प्रकाशित उपर्युक्त सामग्री प्राच्य विद्याओं के अनुशीलन में कितनी महनीय और उपयोगी सिद्ध होती है, यह इस क्षेत्र में कार्यरत विद्वानों एवं नवीन अनुसन्धित्सुओं के प्रयत्नों पर निर्भर करेगा। विगत वर्षों में हमने जो उपक्रम प्रारम्भ किये थे, उनमें से एक का यह अग्रिम चरण है। अन्य उपक्रमों में व्यक्तिगत और सामूहिक अध्ययन-अनुसन्धान, राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर शैक्षिक एवं सांस्कृतिक सम्पर्क तथा भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों को मुख्य धारा से जोड़ने की दिशा में हमने जितना गन्तव्य तय किया था, उससे आगे बढ़ने के प्रयत्न किये हैं । अनेक प्रकार की परिसीमाओं और झंझावातों के बावजूद हम आगे बढ़े हैं।
संकाय पत्रिका-२
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