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________________ सम्पादकीय संकाय पत्रिका २, प्राच्यविद्या विषयक उच्चानुशीलन की दिशा में एक अग्रिम चरण है। रजत जयन्ती विशेषांक के सातत्य में श्रमणविद्या भाग दो के रूप में इसे पाठकों के हाथों में सौंपते हुए हादिक प्रसन्नता है। पिछले भाग की तरह इस भाग में एक विशेष निबन्ध, देवनागरी लिपि में प्रथम बार तीन दुर्लभ पालि लघु ग्रन्थ, एक प्राचीन प्राकृत जैनागम तथा सर्वथा अप्रकाशित संस्कृत टीका के साथ एक प्राकृत प्रकरण ग्रन्थ समाहित हैं। इस सामग्री की अपनी निजी विशेषता है। भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से इसकी विशेष उपादेयता है। 'श्रमण परम्परा में संवर' शीर्षक डॉ. कमलेश जैन का निबन्ध पिछले भाग में प्रकाशित 'अहिंसा : अध्ययन की एक दिशा' शीर्षक निबन्ध की तरह प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन के एक ऐसे विशिष्ट पक्ष को उद्घाटित करता है, जिसने सहस्रों वर्षों तक दार्शनिक और धार्मिक क्षेत्र में क्रान्ति की ऊर्जा को उद्वेलित किया। श्रमण परम्परा की जैन और बौद्ध दोनों मुख्य धाराओं में 'संवर' का विस्तृत विश्लेषण किया गया है। 'संवर' की साधना जीवन के श्रेष्ठतम विकास की ओर दोहरी यात्रा है। एक यात्रा वह जो अन्तरंग की समग्रता में अविराम चलती है, और दूसरी वह जो जीवन के बाह्य आचरण में प्रतिबिम्बित और प्रतिफलित होती है। 'संवर' का विज्ञान भारतीय मनीषा का वह अद्भुत आविष्कार है, जिसकी चरम निष्पत्ति अमृतत्व, मोक्ष या निर्वाण के रूप में निश्रेयस में होती है। प्रस्तुत निबन्ध उन सम्भावनाओं को उजागर करता है, जो भारतीय विद्याओं के समग्रता में अनुशीलन का पाथेय बन सकती हैं । पालि गद्य में निबद्ध 'सीमा-विवाद-विनिच्छय कथा' देवनागरी लिपि में यहाँ प्रथम बार प्रस्तुत है । सिंहली लिपि में उपलब्ध एक मात्र प्रति से सम्पादित यह लघु ग्रन्थ रोमन लिपि में १८८७ में पाली टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन के जर्नल में प्रकाशित हुआ था। डॉ, ब्रह्मदेवनारायण शर्मा ने परिश्रम और सावधानी पूर्वक इसका देवनागरीकरण किया है। इस कृति में बौद्ध विनय के नव इतिहास विषयक कतिपय ऐसे तथ्य उपलब्ध हैं, जो पालि साहित्य के अध्येताओं के लिए रोचक सिद्ध होंगे। _ 'जातिदक्खविभागो' पालि गाथाओं में निबद्ध एक प्रकरण ग्रन्थ है। भदन्त डी. सोमरतन थेरो ने सिंहली लिपि से अत्यन्त परिश्रम पूर्वक प्रथम बार इसका देवनागरीकरण किया है। जातिदुःख का विभाजन एवं शून्यता प्रतिसंयुक्त धर्मों का वर्णन बौद्ध दर्शन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय है। प्रवजित और गृहस्थ संकाय पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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