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श्रमण परम्परा में संवर
विरति, अप्रमाद, अकषायिता तथा अयोगिता, इन संवर के पांच द्वारों का उल्लेख किया गया है।५४ आगे छठे स्थान में पंचेन्द्रिय के साथ नोइन्द्रिय मिलाकर छह संवर५५, आठवें स्थान में पंचेन्द्रिय सहित मन, वचन और काय को मिलाकर आठ संवर,५६ तथा दसवें स्थान में पंचेन्द्रिय, मन, वचन, काय, उपकरण, एवं सूची कुशाग्र, यह दस प्रकार का संवर कहा गया है।५७
समवायाङ्ग में संवर शब्द का प्रयोग दो बार किया गया है। ठाणाङ्ग की तरह यहाँ भी समवायों में संख्याओं के क्रम से विवेचन किया गया है। प्रथम स्थानक में कहा गया है कि एक आत्मा, एक अनात्मा, एक लोक, एक अलोक की भाँति तात्त्विक दृष्टि से संवर भी एक है। एक अन्य स्थल पर बत्तीस योग संग्रहों का उल्लेख करते हुए उनके अन्तर्गत संवर का भी परिगणन किया गया है ।१९
___ भगवइ (व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्राङ्ग) में संवर शब्द का प्रयोग ग्यारह प्रसंगों में हुआ है। पावपित्यीय-पार्श्व की परम्परा का शिष्यानुशिष्य कालास्यवेषिपुत्त नामक अनगार भगवान् महावीर के स्थविरों के पास जाकर कहता है-हे स्थविरो! आप सामयिक, सामायिक के अर्थ को, प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान के अर्थ को, संयम, संयम के अर्थ को, संवर, संवर के अर्थ को नहीं जानते हैं, हे स्थविरो! आप विवेक, विवेक के अर्थ को, तथा व्युत्सर्ग को एवं व्युत्सर्ग के अर्थ को भी नहीं जानते हैं। यदि आप सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर आदि को एवं इनके अर्थों को जानते हैं तो इनके स्वरूप बतलाइए? इसके उत्तर में भगवन्त स्थविर कालास्यवेषिपुत्र अनगार से कहते हैं-हे आर्य, हम सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक एवं व्युत्सर्ग को तथा इन सबके अर्थों को भी जानते हैं। हे आर्य ! हमारी आत्मा ही सामायिक है, हमारी आत्मा ही सामायिक का अर्थ है, इसीप्रकार आत्मा ही प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक एवं व्युत्सर्ग है और आत्मा ही इन सबका अर्थ है।६० ५४. पंच संवरदारा पण्णत्ता, तं जहां-समतं, विरती, अपमादो, अकसाइत्तं
अजो गित्तं ।--ठाणाङ्ग ५/११०, समवायाङ्ग ५। ५५. ठाणाङ्ग ६/१५ । ५६. वही, ८/११ ५७. वही, ११/१०। ५८. एगे संवरे । समवायाङ्ग १११९ । ५९. वही, ३२।१।३ । ०. तेणं कालेणं तेणं समरणं पासावचिज्जे कालासवेसियवृत्ते णामं अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता थेरे भगवते एवं
संकाय पत्रिका-२
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