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श्रमणविद्या-२ वह सब दो प्रकार का है "जदत्थिणं लोगे तं सव्वं दुपओआरं"। जैसे जीव-अजीव, त्रस-स्थावर, सयोनिक-अयोनिक, धर्म-अधर्म पुण्य-पाप, बन्ध मोक्ष, आस्रव संवर, वेदना-निर्जरा इत्यादि ।४५ आगे कहा गया है कि आरम्भ और परिग्रह इन दो स्थानों को जाने और छोड़े विना आत्मा सम्पूर्ण संवर से संवत नहीं होता। अन्यत्र लिखा है कि इन ही दो स्थानों को जानकर और त्यागकर आत्मा सम्पूर्ण संवर संवृत होता है। सुनने और जानने - इन दो स्थानों से आत्मा सम्पूर्ण संवर से संवृत होता है ।४८ आगे कहा गया है कि क्षय और उपशम दो स्थानों से आत्मा सम्पूर्ण संवर से संवृत होता है ।४९
तृतीय स्थान में प्रथम, मध्यम तथा पश्चिम तोन यामों में आत्मा का सम्पूर्ण संवर से संवृत होना बतलाया गया है ।१० आगे लिखा है कि वय तीन हैं-प्रथम मध्यम तथा पश्चिम । इन तीनों वयों में आत्मा केवल सम्पूर्ण संवर से संवृत होता है ।५१
चतुर्थ स्थान में चार अन्तक्रियाओं का वर्णन करते हुए कहा है कि कोई पुरुष अल्पकर्मो के साथ मनुष्य जन्म को प्राप्त होता है, वह मुंड़ित होकर, घर छोड़कर, अनगार रूप में प्रवजित हो, संयम-बहुल, संवर-बहुल और समाधि-बहुल होता हुआ अन्त में सब दुःखों का अन्त करता है, यह प्रथम अन्तक्रिया है। इसी प्रकार अन्य तीन अन्तक्रियाओं का स्वरूप बतलाया गया है ।५२
पंचम स्थान में संवर पांच प्रकार का कहा गया है-श्रोतेन्द्रिय संवर, चक्षुरिन्द्रियसंवर, घ्राणेन्द्रियसंवर, रसनेन्द्रियसंवर, स्पर्शनेन्द्रियसंवर ।५३ अन्यत्र सम्यक्त्व,
४५. वही, २/१। ४६. वही, २/४६ । ४७. वही, २/५७ । ४८. वही, २/६८ । ४९. वही, २/४०४ । ५०. वही, ३/१६७ । ५१. वही, ३/१७५ । ५२. चत्तारि अंत किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-अप्पकम्मपच्चायते यावि
भवति । से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए संजमबहुले
संवरबहुले समाहिबहुले... ।---ठाणाङ्ग ४/१ । ५३. वही, ५/१३७ ।
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संकाय पत्रिका-२
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