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________________ सांप्रदायिक कटरता अतीत में भी रही है, आज भी है। अतीत में भी एक संप्रदाय ने दूसरे संप्रदाय में विद्यमान असत्यांश को देखने का दृष्टिकोण विस्तृत किया, उसके प्रति जनता में घृणा का भाव उभारा। आज भी ऐसा हो रहा है। फलतः सांप्रदायिक संघर्ष की चिनगारी समय-समय पर उछलती रहती है। इस समस्या का सर्वोत्तम समाधान है—दूसरों में विद्यमान सत्यांश को ग्रहण करने वाली दृष्टि का विकास | इसी चिंतन के क्षणों में काका कालेलकर ने कहा था-'आज के विश्व को अनेकांत की जरूरत है।' लोकतंत्र की प्रणाली में अनेकांत एक जीवन-शक्ति का काम करता है। अनेकांत का एक सिद्धांत है अर्पणा और अनर्पणा । किसी एक की अर्पणा करो, उसे आगे लाओ, मुख्य बनाओ। दूसरे की अनर्पणा करो, उसे पीछे ले जाओ, गौण कर दो। इस मुख्य और गौण बनाने की प्रक्रिया से ही बदलते हुए सत्यों की व्याख्या हो सकती है। हमारी गति का क्रम है—एक पैर आगे आता है, दूसरा पैर पीछे चला जाता है। दोनों पैरों की इस सापेक्षता से ही गति संभव बनती है। बिलौने में दोनों हाथों का भी यही क्रम है। पहले क्षण दायां हाथ आगे आता है, बायां हाथ पीछे। दूसरे क्षण दायां हाथ पीछे चला जाता है और बायां हाथ आगे आ जाता है। दोनों हाथ आगे रहें या पीछे रहें, नवनीत नहीं निकलता | कभी एक सत्यांश प्रमुख होता है तो दूसरा सत्यांश गौण बन जाता है। इस गतिशीलता ने ही दो भिन्न अथवा विरोधी सत्यांशों में समन्वय स्थापित किया है। ____दर्शन के क्षेत्र में अनेकांत समन्वय का प्रवर्तक है। उसकी अनुक्रिया व्यवहार के क्षेत्र में भी होती है। यह समन्वय का सूत्र ही सह-अस्तित्व का आधार बनता है। -आचार्यश्री महाप्रज्ञ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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