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________________ योग्यता की दृष्टि से मनुष्य पांच इंद्रिय वाला होता है। एक काल में वह एक ही इंद्रिय से जानता है। जब एक आदमी सूखा लड्डू खाता है, तब उसे शब्द भी सुनाई देता है, उसे देखता भी है, उसकी गंध भी आती है, रस भी चखता है। लगता है पांचों की जानकारी या अनुभूति एक साथ हो रही है। परंतु ऐसा होता नहीं। इन सबका काल भिन्न होता है। दो ज्ञान एक साथ नहीं हो सकते। दो क्रियाएं एक साथ हो सकती हैं, किंतु अविरोधी हों तो। दो विरोधी क्रियाएं एक साथ नहीं हो सकी। दो प्रकार के विचार एक साथ नहीं हो सकते। - सम्यक् और असम्यक् दोनों क्रियाएं एक साथ नहीं हो सकी। अहिंसा और हिंसा, धर्म और अधर्म का आचरण एक साथ नहीं किया जा सकता। सांसारिक उपकार सांसारिक व्यवस्था का मार्ग है। आत्मिक उपकार मोक्ष की साधना का मार्ग है। मिथ्यादृष्टि इन दोनों को एक मानता है, सम्यकदृष्टि इनको अलग-अलग मानता है। 'भिक्षु विचार दर्शन' से ALTAN धर्म अरूप तत्त्व है। उसे लोक-जीवन में प्रतिष्ठित करने के लिए रूप देना जरूरी होता है। विचारों के वाहन पर बिठा देने से वह रूपवान बन सकता है। उसका रूप अनाविल और हृदयहारी रहे इसके लिए विचारों को समन्वय के 'फ्रेम' में व्यवस्थित करने की अपेक्षा रहती है। असमन्वित विचारधारा से प्रवाहित तरंगें समग्र वातावरण का सन्तुलन तोड़ सकती हैं। इस दृष्टि से भगवान महावीर ने समता और समन्वय पर विशेष बल दिया। समता और समन्वय के खंभों पर संगठन का प्रासाद खड़ा हो सकता है। भगवान महावीर ने समता और समन्वय के साथ संगठन को भी विशेष प्रतिष्ठा दी। कुछ विचारकों के अभिमत से संगठन हिंसा का प्रतीक है। पर महावीर के दर्शन में यह स्वर कहीं भी मुखर नहीं है। उन्होंने सत्य को उपलब्ध करते ही संगठन को अपनी स्वीकृति दे दी। आज तक जितने भी तीर्थकर हुए हैं, उन सबने ऐसा ही किया है। क्योंकि तीर्थकर बनने की पहली शर्त ही है—तीर्थ अर्थात् संघ की स्थापना | जहां संघ है वहां संगठन की अनिवार्यता है। कोई भी व्यक्ति अकेला रहकर साधना करे, वहां संगठन का मूल्य नहीं है। किंतु सामूहिक साधना संगठन के अभाव में अपनी तेजस्विता को मंद कर देती है। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि साधना संगठन के लिए ही है। पर साधना के लिए संगठन का जो उपयोग है, उसी को ध्यान में रखकर भगवान महावीर ने एक संगठित धर्म-संघ का प्रवर्तन किया था । –आचार्यश्री तुलसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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