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मंढ़ने का प्रयत्न नहीं करता। वस्तु-सत्य के विरोधी, विसंगत प्रतीत होने वाले पर्यायों में अपने तर्क-बल से सामंजस्य और संगति स्थापित करने का प्रयत्न नहीं करता। यह ऋजुता की साधना झुकाव-शून्यता की साधना है, विचार-शून्यता की साधना है। ऋजु व्यक्ति न महावीर के प्रति झुकाव रखता है और न किसी दूसरे के प्रति। उसका मन और मस्तिष्क खाली होता है, शून्य होता है।
सत्य की खोज के मार्ग में जितने प्रश्न, जितनी समस्याएं और जितनी उलझनें हैं, वे सब एकांतवादी लोगों ने उत्पन्न की हैं। एक एकांतवादी व्यक्ति 'क' के सत्यांश को पूर्ण सत्य मानकर 'ख' के सत्यांश को असत्यांश बतलाता है तो दूसरा व्यक्ति 'ख' के सत्यांश को पूर्ण सत्य मानकर 'क' के सत्यांश को असत्यांश बतलाकर सत्य की खोज में प्रश्न पैदा करता है। वे यथार्थ को यथार्थ रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। वे वचन-प्रामाण्य या शास्त्रप्रामाण्य से ही सत्य को उपलब्ध करना चाहते हैं। उसके लिए ऋजुता या विचारशून्यता की साधना करना नहीं चाहते। ऐसे ही लोगों ने सत्यांशों में विरोधाभास दिखाकर सत्य की अनेकरूपता
और सत्यदर्शी तपस्वियों की परस्पर विसंवादिता के प्रश्न को उजागर किया है।
6. एक समय में एक पर्याय को ही जाना जा सकता है। 7. एक पर्याय के ज्ञान के आधार पर भावी अनंत पर्यायों की व्याख्या नहीं की जा
सकती, इसलिए सापेक्ष सत्य की व्याख्या करना उचित है। . अस्तित्व निरपेक्ष सत्य है। उसका पर्याय के आधार पर अनुमान किया जा सकता है, किंतु उसका साक्षात् ज्ञान नहीं किया जा सकता।
अस्तित्व इंद्रिय ज्ञान से ज्ञेय नहीं है, इसलिए वह अज्ञेय है। वह परिणमन धर्मा है। उसका एक परिणमन अथवा एक पर्याय एक समय में इंन्द्रिय चेतना से ज्ञेय बनता है। उसके शेष सब पर्याय एक साथ ज्ञेय नहीं बनते। वे कालक्रम से ज्ञेय बनते हैं। जो ज्ञेय नहीं बनते, उन्हें अस्वीकार नहीं किया जा सकता। ज्ञेय पर्याय और अज्ञेय पर्याय की युगपत् स्वीकृति का सूचक शब्द है 'स्यात्'। आगम साहित्य में नय के साथ 'स्यात्' शब्द का प्रयोग हुआ है, अतः आगम युग में नय और स्याद्वाद दोनों भिन्न नहीं हैं। अनेकांत का आधार भी नय है इसलिए अनेकांत भी नय से भिन्न नहीं है। दार्शनिक युग में जैन दर्शन के आचार्यों ने दार्शनिक समस्याओं पर विचार करने की दृष्टि से प्रमाण और नय का विभाग किया। द्रव्य के समग्र स्वरूप का ज्ञान करने के लिए प्रमाण की व्यवस्था की। उसके ज्ञानात्मक और वचनात्मक-दोनों विधि प्रकल्पों के साथ 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया गया। ज्ञान काल में 'स्यात्' शब्द स्वार्थानुमान की तरह अंतर्भूत रहता है, वचन काल में पदार्थानुमान की तरह वह वाक्प्रयोग बनता है।
द्रव्य के एक पर्याय का ज्ञान करने के लिए नय की व्यवस्था की। उसके साथ 'स्यात्' शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, केवल 'एवकार' (निरपेक्ष बोध अथवा वचन) का प्रतिषेध किया गया। आचार्य हेमचन्द्र ने इन तीनों का आकार इस प्रकार प्रस्तुत किया
1. सदैव दुर्नय, एकांत बोध अथवा एकांत वचन। 2. सत्-सापेक्ष बोध अथवा सापेक्ष वचन। 3. स्यात् सत्-प्रमाण बोध अथवा प्रमाण वाक्य।
नय का एक वर्गीकरण और मिलता है-निश्चय नय और व्यवहार नय। द्रव्यार्थिक नय वस्तुतः निश्चय नय है और पर्यायार्थिक नय व्यवहार नया इंद्रिय ज्ञानी सत् को जानने के लिए पर्यायार्थिक अथवा व्यवहार नय का उपयोग करता है। अतींद्रिय ज्ञानी सत् के व्यक्त पर्याय को ही नहीं जानता, वह उसके अव्यक्त पर्याय को भी जानता है। उसके लिए निश्चय नय उपयोगी है। सत् का समग्र रूप व्यक्त और अव्यक्त दोनों पर्यायों से संवलित है। इंद्रियज्ञानी अतींद्रियज्ञानी के वचन के आधार पर उसका ज्ञान कर सकता है। अपने ज्ञान से उसे नहीं जान पाता। अनुमान
और गणित से वह अतींद्रिय वस्तु को भी जान सकता है, इसलिए गणितीय युग में । सत् के अव्यक्त पर्यायों को भी जानने की क्षमता विकसित हुई है। इस आधार पर सिद्धसेन के उस सूक्त की सार्थकता प्रमाणित होती है। उसे कुछ परिवर्तन के साथ इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है।
जितने ज्ञान पथ उतने नय। जितने नय उतने ज्ञान पथ। जितने वचन पथ उतने नय। जितने नय उतने वचन पथ।
नय की मीमांसा किए बिना सत् के अव्यक्त और व्यक्त रूप तथा ज्ञान की सीमा का सम्यक् आकलन नहीं किया जा सकता।
अनेकांत विशेष .21
मार्च-मई, 2002
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